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सम्पादकीय :-आतंकवाद के पोषक पर IMF की मेहरबानी : भारत की विदेश नीति के लिए आत्ममंथन का समय

ByBinod Anand

May 16, 2025

भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए, अपने हितों की रक्षा के लिए एक मजबूत और संतुलित विदेश नीति का अनुसरण करना होगा। उसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज को और अधिक प्रभावी ढंग से उठाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि वैश्विक समुदाय इस खतरे की गंभीरता को समझे।

ह विडंबना ही है कि जिस पाकिस्तान को भारत दशकों से सीमा पार आतंकवाद का मुख्य प्रायोजक मानता आया है, उसे अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की उदारता मिल रही है। हाल ही में IMF द्वारा पाकिस्तान को 1.02 अरब डॉलर की दूसरी किस्त जारी करना और बांग्लादेश पर भी कुछ ऐसी ही मेहरबानी दिखाना, नई दिल्ली के लिए स्वाभाविक रूप से चिंता का विषय है। यह घटनाक्रम ऐसे समय पर हो रहा है जब पाकिस्तान का आगामी बजट विचाराधीन है और भारत के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं। यह स्थिति भारत को अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करती है।

भारत की मुख्य चिंता यह है कि IMF से मिलने वाली इस वित्तीय सहायता का उपयोग पाकिस्तान आतंकवाद के वित्तपोषण और अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाने में कर सकता है, जिससे भारत की सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह लगातार भारत में हमलों को अंजाम देते रहे हैं, और इस वित्तीय सहायता से उन्हें और अधिक प्रोत्साहन मिल सकता है।

भारत ने हमेशा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस खतरे को उठाया है और पाकिस्तान को वित्तीय सहायता देने के संभावित दुरुपयोग के बारे में अपनी आशंकाएं व्यक्त की हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी चिंताओं को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जा रहा है।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका की नीतियों में विरोधाभास है या वे भारत के हितों के अनुरूप नहीं हैं। पाकिस्तान, चीन का एक करीबी सहयोगी है, और यह संभव है कि अमेरिका इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए पाकिस्तान को आर्थिक रूप से स्थिर रखने की कोशिश कर रहा हो।

यह भी तर्क दिया जा सकता है कि अमेरिका पाकिस्तान को पूरी तरह से चीन के खेमे में जाने से रोकना चाहता है, और IMF के माध्यम से वित्तीय सहायता प्रदान करना इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। हालांकि, आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के लिए यह तर्क संतोषजनक नहीं हो सकता है। भारत का मानना है कि आतंकवाद के मुद्दे पर कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता है और किसी भी देश को आतंकवाद का समर्थन करने वाले राष्ट्र की कीमत पर क्षेत्रीय स्थिरता साधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि अमेरिका का झुकाव चीन की तरफ है, तो यह आशंका और बढ़ जाती है कि भारत की आतंकवाद संबंधी चिंताओं को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जा रहा है।

इसके अतिरिक्त, यदि पाकिस्तान IMF के ऋण के सहारे भी आर्थिक रूप से स्थिर होता है, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से भारत के लिए सुरक्षा चुनौतियां खड़ी कर सकता है। एक आर्थिक रूप से मजबूत पाकिस्तान सीमा पर अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ा सकता है और आतंकवादी समूहों को और अधिक समर्थन दे सकता है।

भारत यह भी महसूस कर सकता है कि अमेरिका, जो उसका एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार है, उसकी सुरक्षा चिंताओं को पर्याप्त महत्व नहीं दे रहा है। बांग्लादेश में भी कट्टरपंथी ताकतों का उभार भारत के लिए एक नई चिंता का विषय है, और ऐसे में उसे भी वित्तीय सहायता मिलना स्थिति को और जटिल बना सकता है।

निश्चित रूप से, पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही भारत के लिए चुनौतियां पेश कर रहे हैं। कभी चीन का एजेंडा तो कभी अमेरिका की चाल, इन दोनों देशों को मिलने वाली वित्तीय सहायता का उपयोग यदि आतंकवाद को बढ़ावा देने और भारत के खिलाफ शत्रुता को बढ़ाने में किया जाता है, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए हानिकारक होगा। जबकि आज वैश्विक समुदाय को आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने की आवश्यकता है, इस प्रकार की वित्तीय सहायता आतंकवाद को पोषित करने में सहायक हो सकती है।

ऐसे परिदृश्य में, भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी विदेश नीति की गहन समीक्षा करे। उसे यह आकलन करना होगा कि अमेरिका और अन्य वैश्विक शक्तियों की प्राथमिकताएं क्या हैं और उनका भारत के राष्ट्रीय हितों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए, अपने हितों की रक्षा के लिए एक मजबूत और संतुलित विदेश नीति का अनुसरण करना होगा। उसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज को और अधिक प्रभावी ढंग से उठाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि वैश्विक समुदाय इस खतरे की गंभीरता को समझे। यह समय भारत के लिए आत्मनिरीक्षण और एक सुविचारित रणनीति बनाने का है ताकि वह क्षेत्रीय चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना कर सके और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सके। भारत को अब यह समझना होगा कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में उसे अपनी विदेश नीति को और अधिक दृढ़ता और दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़ाना होगा।

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