भारत को इस अस्थायी समझौते से घबराने के बजाय, इसे एक अवसर के रूप में देखना चाहिए ताकि वह अपनी विनिर्माण क्षमताओं को और मजबूत कर सके, अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ा सके और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अपनी भूमिका को और अधिक स्थायी बना सके।
अ मेरिका और चीन के बीच लंबे समय से चला आ रहा व्यापार युद्ध, जो 12 मई 2025 को एक समझौते के साथ समाप्त हुआ, वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने अपने-अपने टैरिफ में भारी कमी करने पर सहमति जताई है – अमेरिका ने अपने टैरिफ को 145% से घटाकर 30% कर दिया है, जबकि चीन ने इसे 125% से घटाकर 10% कर दिया है।

इस खबर ने अमेरिकी शेयर बाजार में उछाल ला दिया है और मंदी के खतरे को कम किया है, जिससे डाउ जोन्स, S&P 500 और नैस्डैक जैसे प्रमुख इंडेक्स में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। हालांकि, यह समझौता अभी 90 दिनों के लिए अस्थायी है, और इसके भारत पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। विशेष रूप से, यह सवाल उठता है कि क्या चीन के साथ अमेरिकी डील भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को प्रभावित करेगी, खासकर उन कंपनियों को जो कम टैक्स, सस्ते मजदूर और बड़े भारतीय बाजार के लाभों का लाभ उठाने के लिए यहां अपनी इकाइयां स्थापित कर रही थीं।
चीन-अमेरिकी समझौते की पृष्ठभूमि और निहितार्थ:
अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध मुख्य रूप से व्यापार असंतुलन, बौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघन और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण जैसे मुद्दों पर केंद्रित था। इस व्यापार युद्ध ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित किया और कई कंपनियों को ‘चीन प्लस वन’ रणनीति अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिसमें वे चीन पर अपनी अत्यधिक निर्भरता को कम करने के लिए अन्य देशों में विनिर्माण ठिकानों की तलाश कर रही थीं।
भारत इस रणनीति से लाभान्वित होने वाले प्रमुख देशों में से एक था, क्योंकि इसने कंपनियों को अपने विनिर्माण आधार को विविध बनाने का अवसर प्रदान किया।
हालिया समझौता, भले ही अस्थायी हो, दोनों देशों के बीच तनाव कम करने और व्यापार संबंधों को सामान्य करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। टैरिफ में कमी से अमेरिकी और चीनी कंपनियों के लिए एक-दूसरे के बाजारों में पहुंच आसान हो जाएगी, जिससे व्यापार की लागत कम होगी और उपभोक्ताओं के लिए वस्तुओं की कीमतें सस्ती हो सकती हैं। इससे वैश्विक व्यापार में एक नया उछाल आ सकता है, लेकिन इसके साथ ही कुछ देशों, जैसे भारत, के लिए नई चुनौतियां भी उत्पन्न हो सकती हैं।
भारत में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर संभावित प्रभाव:
भारत सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ पहल और विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं ने विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने और विनिर्माण इकाइयां स्थापित करने के लिए आकर्षित किया है। इन कंपनियों के लिए भारत एक आकर्षक गंतव्य रहा है, जिसके कई कारण हैं..!
कम उत्पादन लागत: भारत में अपेक्षाकृत सस्ते मजदूर और कम परिचालन लागत विदेशी कंपनियों के लिए एक बड़ा आकर्षण रहे हैं।
कम टैक्स: सरकार ने विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कर प्रोत्साहन और रियायतें प्रदान की हैं।
बड़ा घरेलू बाजार: भारत का विशाल और बढ़ता हुआ उपभोक्ता बाजार उन कंपनियों के लिए एक स्वाभाविक विकल्प है जो स्थानीय रूप से उत्पादन करना चाहती हैं और सीधे भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं।
भू-राजनीतिक स्थिरता: चीन के मुकाबले भारत की अधिक स्थिर भू-राजनीतिक स्थिति ने भी कई कंपनियों को आकर्षित किया है, खासकर जब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को जोखिम मुक्त करने की बात आती है।
हालांकि, चीन-अमेरिकी व्यापार समझौते के बाद, इन कारकों का महत्व बदल सकता है। यदि चीन और अमेरिका के बीच व्यापार संबंध सामान्य होते हैं और टैरिफ में भारी कमी आती है, तो कुछ कंपनियों के लिए चीन में विनिर्माण फिर से अधिक आकर्षक हो सकता है। इसके कई कारण हो सकते हैं.
चीन की स्थापित आपूर्ति श्रृंखलाएं: चीन ने दशकों से एक मजबूत और कुशल विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया है, जिसमें परिपक्व आपूर्ति श्रृंखलाएं और उच्च-स्तरीय बुनियादी ढांचा शामिल है। कई कंपनियों के लिए, चीन से दूर जाना एक महंगा और जटिल प्रक्रिया थी।
तकनीकी विशेषज्ञता और पैमाना: चीन में विनिर्माण के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता और पैमाने तक पहुंच अक्सर भारत की तुलना में बेहतर होती है, खासकर कुछ उन्नत क्षेत्रों में।
पहले से किए गए निवेश: कई कंपनियों ने चीन में भारी निवेश किया हुआ है, और यदि व्यापार युद्ध की बाधाएं कम हो जाती हैं, तो वे अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे का लाभ उठाना पसंद करेंगी।
यह तर्क दिया जा सकता है कि जिन कंपनियों ने मुख्य रूप से चीन से व्यापार युद्ध के कारण अपनी ‘चीन प्लस वन’ रणनीति के तहत भारत में निवेश किया था, वे अब अपने विकल्पों का पुनर्मूल्यांकन कर सकती हैं। यदि चीन में उत्पादन करना फिर से अधिक लागत प्रभावी हो जाता है, तो कुछ कंपनियां या तो भारत में अपने विस्तार योजनाओं को धीमा कर सकती हैं, या कुछ मामलों में, चीन में अपनी गतिविधियों को मजबूत करने पर विचार कर सकती हैं। इससे भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निवेश की गति धीमी हो सकती है और रोजगार सृजन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
भारत के लिए अवसर और चुनौतियां:
हालांकि, स्थिति इतनी सीधी नहीं है। चीन-अमेरिकी समझौते के बावजूद, भारत के पास अपनी ताकतें हैं जो इसे एक आकर्षक विनिर्माण गंतव्य बनाए रखेंगी
घरेलू बाजार की शक्ति: भारत का विशाल और बढ़ता हुआ घरेलू बाजार एक ऐसा लाभ है जो चीन-अमेरिकी समझौते से अप्रभावित रहेगा। जो कंपनियां भारतीय उपभोक्ताओं को लक्षित करती हैं, उनके लिए स्थानीय विनिर्माण अभी भी महत्वपूर्ण है।
सरकार की नीतियां: भारत सरकार ‘मेक इन इंडिया’, उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना और अन्य सुधारों के माध्यम से विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। ये नीतियां विदेशी निवेश को आकर्षित करना जारी रखेंगी, भले ही चीन-अमेरिकी व्यापार संबंध सुधरें।
दीर्घकालिक आपूर्ति श्रृंखला विविधीकरण: कोविड-19 महामारी और व्यापार युद्ध ने कंपनियों को यह सिखाया है कि एक ही देश पर अत्यधिक निर्भरता जोखिम भरी हो सकती है। भले ही चीन फिर से आकर्षक हो जाए, फिर भी कई कंपनियां अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को विविध बनाए रखने की कोशिश करेंगी ताकि भविष्य के झटकों से बचा जा सके।
भू-राजनीतिक कारक: चीन के साथ भू-राजनीतिक तनाव और मानवाधिकार संबंधी चिंताएं कुछ पश्चिमी कंपनियों के लिए चीन से पूरी तरह से अलग होने या कम से कम अपनी निर्भरता कम करने का कारण बनी रहेंगी, भले ही व्यापार टैरिफ कम हो जाएं।
फार्मा और आईटी सेक्टर पर प्रभाव:
इससे आईटी सेक्टर को कुछ राहत मिल सकती है। यह तर्कसंगत लगता है
वहीं फार्मा सेक्टर के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है कि भारत दुनिया के सबसे बड़े फार्मास्युटिकल उत्पादकों में से एक है और “दुनिया की फार्मेसी” के रूप में जाना जाता है। चीनी कच्चे माल पर कुछ निर्भरता के बावजूद, भारत की अपनी विनिर्माण क्षमता और कम लागत इसे एक वैश्विक केंद्र बनाती है।
चीन-अमेरिकी समझौते से दवाइयों के व्यापार में आसानी हो सकती है, जिससे भारतीय फार्मा कंपनियों को नए बाजारों तक पहुंचने या मौजूदा बाजारों में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिल सकती है।
वहीं भारत का आईटी सेक्टर मुख्य रूप से सेवा-उन्मुख है और वैश्विक ग्राहकों को सॉफ्टवेयर विकास, बीपीओ और आईटी परामर्श सेवाएं प्रदान करता है। यह सेक्टर सीधे तौर पर टैरिफ से उतना प्रभावित नहीं होता है जितना विनिर्माण। वास्तव में, वैश्विक आर्थिक स्थिरता और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार से भारतीय आईटी कंपनियों के लिए व्यापार के अवसर बढ़ सकते हैं।
आगे की राह और भारत के लिए सिफारिशें
मेरा मानना है कि भारत को इस बदलते परिदृश्य का सामना करने के लिए सक्रिय कदम उठाने होंगे। सरकार को अपनी नीतियों को और मजबूत करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत एक आकर्षक निवेश गंतव्य बना रहे। इसके लिए कुछ प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार:
नौकरशाही की बाधाओं को कम करना, प्रक्रियाओं को सरल बनाना और अनुमोदन प्रक्रिया में तेजी लाना महत्वपूर्ण है ताकि कंपनियों के लिए भारत में संचालन करना आसान हो सके।
बुनियादी ढांचे का विकास:
विश्व स्तरीय सड़क, रेल, बंदरगाह और हवाई अड्डे के बुनियादी ढांचे का निर्माण और ऊर्जा की विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करना विनिर्माण के लिए आवश्यक है।
कौशल विकास:
विनिर्माण क्षेत्र की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुशल कार्यबल तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
अनुसंधान और विकास में निवेश:
नवाचार और नई तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि भारत उच्च मूल्य वाले विनिर्माण में आगे बढ़ सके।
क्षेत्रीय व्यापार समझौतों पर ध्यान: चीन-अमेरिकी समझौते के संभावित प्रभावों को कम करने के लिए भारत को अन्य देशों और व्यापारिक गुटों के साथ क्षेत्रीय व्यापार समझौतों (FTAs) को मजबूत करने पर विचार करना चाहिए।
घरेलू मांग को बढ़ावा:
देश की आर्थिक वृद्धि और घरेलू मांग को मजबूत करना भारतीय मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करेगा, जिससे बाहरी झटकों का प्रभाव कम होगा।
चीन के साथ विशिष्ट उद्योगों में प्रतिस्पर्धा का विश्लेषण: भारत को उन विशिष्ट उद्योगों की पहचान करनी चाहिए जहां चीन के साथ प्रतिस्पर्धा सबसे अधिक तीव्र होने की संभावना है, और इन क्षेत्रों में घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए लक्षित नीतियां विकसित करनी चाहिए।
लचीली आपूर्ति श्रृंखलाओं को बढ़ावा देना: सरकार को उन कंपनियों को प्रोत्साहित करना चाहिए जो अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को विविध बनाना चाहती हैं, और भारत को एक विश्वसनीय और लचीले विनिर्माण केंद्र के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
अंत में मेरा निष्कर्ष है कि चीन और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते का भारत के व्यापार और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर निश्चित रूप से कुछ प्रभाव पड़ेगा। यह उन कंपनियों के लिए एक पुनर्मूल्यांकन का कारण बन सकता है जिन्होंने व्यापार युद्ध के कारण चीन से बाहर निकलने का फैसला किया था। हालांकि, भारत की अपनी आंतरिक ताकतें – विशाल घरेलू बाजार, अनुकूल सरकारी नीतियां, और दीर्घकालिक आपूर्ति श्रृंखला विविधीकरण की आवश्यकता – इसे एक आकर्षक गंतव्य बनाए रखेंगी।
भारत को इस अस्थायी समझौते से घबराने के बजाय, इसे एक अवसर के रूप में देखना चाहिए ताकि वह अपनी विनिर्माण क्षमताओं को और मजबूत कर सके, अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ा सके और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अपनी भूमिका को और अधिक स्थायी बना सके।
यदि भारत सरकार सही रणनीतियों को लागू करती है और व्यापार और निवेश के माहौल को लगातार बेहतर बनाती है, तो चीन-अमेरिकी व्यापार समझौता भारत के लिए एक चुनौती से अधिक एक अवसर साबित हो सकता है। यह समय है कि भारत अपनी नीतियों को और अधिक फुर्तीला बनाए और वैश्विक आर्थिक परिवर्तनों के अनुकूल हो, ताकि वह न केवल इस समझौते के प्रभावों को सहन कर सके, बल्कि एक मजबूत और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के रूप में उभरे।


