डॉ. उर्मिला सिन्हा: एक परिचय
डॉ. उर्मिला सिन्हा, रांची, झारखंड से, एक स्वतंत्र लेखिका हैं जिनका साहित्यिक क्षेत्र में विस्तृत योगदान है। वे न केवल गहन लेखन में संलग्न हैं, बल्कि देश-विदेश का भ्रमण कर और सोशल मीडिया के विभिन्न साहित्यिक मंचों पर सक्रिय भागीदारी निभाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
प्रकाशित कृतियाँ एवं शोध कार्य
डॉ. सिन्हा का लेखन विविध विधाओं में फैला हुआ है। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ और शोध कार्य इस प्रकार हैं:
* शोध-प्रबंध: “प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यंग्य बोध” (पुस्तकाकार प्रकाशित)
* उपन्यास: “एक गाँव की कहानी”
* कहानी संग्रह: “यादों की पोटली”
* कहानी संग्रह: “एक जोड़ी आंखें”
इनके अतिरिक्त, उनका एक और कहानी संग्रह प्रकाशनार्थ है। वे नियमित रूप से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कहानियाँ, आलेख, कविताएँ और लघुकथाएँ प्रकाशित करती रही हैं।

सम्मान एवं पुरस्कार
लेखन के क्षेत्र में डॉ. उर्मिला सिन्हा को अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो उनकी साहित्यिक यात्रा की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं:
* “साहित्य रत्न” सम्मान-पत्र
* जापान टोक्यो अंतर्राष्ट्रीय मंच, “गूंज उठी हिंदी” से प्रमाण-पत्र और शील्ड
* श्री साहित्य कुंज, जोहार कलमकार मंच, झारखंड से श्री साहित्य सम्मान
* वागेश्वरी साहित्य सम्मान
* कहानियाँ राष्ट्रीय सम्मान
वे सोशल मीडिया के साहित्यिक मंचों पर भी अत्यंत सक्रिय हैं और वहाँ से कई पुरस्कार व ट्रॉफियाँ प्राप्त कर चुकी हैं। “बेटियां” तथा अन्य साहित्यिक मंचों से भी उन्हें अनगिनत पुरस्कार, सम्मान पत्र, मोमेंटो और उपहार नित्य प्राप्त होते रहते हैं।
डॉ. उर्मिला सिन्हा अपनी लेखनी और सक्रिय भागीदारी से हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा
जी वन की भाग-दौड़ और अनवरत व्यस्तता के बावजूद, जब स्मृति के पन्ने पलटे, तो मन बरबस अपनी जन्म-भूमि, परौना अमराई की ओर खिंचा चला गया। वहीं से लाए गए कच्चे आमों के स्पर्श ने अंतर्मन में मधुर स्मृतियों की एक हिलोर पैदा कर दी। उन कच्चे आमों में से कुछ का गुरम्मा बनाया, और कुछ को धूप में सुखाकर, अभी-अभी उसी पारंपरिक विधि से, खट्ट-मीठी का स्वाद चखा। कहते हैं, बचपन का स्वाद कभी नहीं भूलता, और यह मेरे साथ अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ।
विवाह से पूर्व, चूल्हा-चौका से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। मैं अपने घर में सबसे छोटी, मस्त, पढ़ाकू, खिलंदड़ी और खुशमिजाज स्वभाव की थी, जो पल भर में ही सभी के बीच घुल-मिल जाती थी। हमारा संयुक्त परिवार था, जहाँ सेवक-सेविकाओं, भाभियों, दीदियों, माँ और चाची का घर-गृहस्थी के कार्यों पर पूर्ण आधिपत्य था। मैं बस खाने की शौकीन थी, और आज उसी शौकीन मन ने मायके में खाए गए कच्चे आम की पारंपरिक खट्ट-मीठी को अपने ही अंदाज से बना डाला।
मुख में वही पचपन वर्ष पुराना स्वाद घुल-मिल गया, और मन का पाखी पुनः बचपन की उन गलियों में उड़ान भरने लगा, जहाँ आम्रपाली की सुगंध और माँ के हाथों का जादू रचा-बसा था।
आधुनिकता का प्रभाव और परंपरा का विस्मरण
आज की आधुनिक सुख-सुविधाओं और उच्च-स्तरीय जीवन शैली में हम अपना समृद्ध बचपन, अपने पौष्टिक और स्वादिष्ट पारंपरिक आहार को तिलांजलि देकर, डिब्बा बंद भोजन और फास्ट फूड के आदी हो रहे हैं। पिज्जा और बर्गर खाकर हमारे बच्चे मोटापे तथा कई अन्य व्याधियों का शिकार हो रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है उच्च विटामिन युक्त प्राकृतिक आहार का अभाव। हमारे नौनिहाल दिन-रात कंप्यूटर पर आँखें गड़ाए, प्रतिशत (परसेंटाइल) के गणित में उलझे रहते हैं। उनकी ऐश-आराम के लिए दिन-रात खटने वाले माता-पिता, संयुक्त परिवारों का विघटन, और जोमैटो-स्विगी जैसी त्वरित सुविधाओं ने जीवन को और भी जटिल बना दिया है।
मोबाइल इंटरनेट पर आधी-अधूरी जानकारी, और नहीं तो गूगल बाबा, एलेक्सा बहन जी – प्रत्येक प्रश्न का जवाब लिए हाजिर हैं। अब तो एमआई का नया फंडा भी आ गया है। ऐसे में, आम के अमरैया में और तलवा तलैया में (ग्रामीण परिवेश और प्राकृतिक आनंद में), पुराने रहन-सहन और खान-पान में भला किसे रुचि है?
‘कंफर्ट जोन’ से बाहर: परंपराओं का संरक्षण
किंतु, एक बार अपने ‘कंफर्ट जोन’ से निकलकर पुरानी चीजों को सहेजने में कोई हर्ज नहीं है। यह केवल स्वाद की बात नहीं, यह हमारी जड़ों से जुड़ने का, हमारी विरासत को जीवित रखने का एक प्रयास है। ठीक वैसे ही, जैसे यह खट्ट-मीठी, केवल एक व्यंजन नहीं, बल्कि बचपन की यादों का, परंपरा के स्वाद का और अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का एक अनुपम प्रतीक है।


