“डाकिया” शब्द सुनते ही अतीत का एक शांत, किंतु जीवंत चित्र आँखों के सामने आ जाता है। खाकी वर्दी में, धूप की अनवरत यात्रा से ताम्बई हो चुका वह मंझोला कद मानस पटल पर साकार हो उठता है। तीखी नासिका और निरंतर सिकुड़ती-मिचमिचाती आँखें उनके अथक परिश्रम की कहानी कहती थीं। सिर पर टोपी और टूटी कमानी वाले चश्मे पर बँधा धागा, उनकी सादगी और संघर्ष का प्रतीक था। वे हमारे “डाक चाचा” थे—एक निर्विकार प्राणी, जो केवल पत्रों का वाहक नहीं, बल्कि अनगिनत भावनाओं और स्मृतियों का संरक्षक भी था। उनकी उपस्थिति एक बीते हुए युग की धरोहर है।
आलेख :- डॉ. उर्मिला सिन्हा
डाकिया—एक शब्द नहीं, एक युग की धड़कन। हमारे जीवन के वे अभिन्न अंग थे, जिनकी उपस्थिति पारिवारिक सदस्य से भी बढ़कर थी। उनका हमारे साथ न रहना गौण था, क्योंकि वे तो उन अपनों का प्यार भरा संदेशा लाते थे, जो हमसे कोसों दूर, क्षितिज पार बसे थे। वे संदेशवाहक नहीं थे, वे तो भावनाओं के सेतु थे, जो हृदय से हृदय को जोड़ते थे।
“डाकिया” शब्द कानों में पड़ते ही, आज से कुछ वर्ष पहले का वह शांत, किंतु जीवंत दृश्य मानस पटल पर साकार हो उठता है। आँखों के समक्ष खाकी का वह मंझोला कद, जिसका साँवला वर्ण धूप की अनवरत यात्रा से ताम्बई हो चुका था। तीखी नासिका, और गड्ढों में धँसी, निरंतर सिकुड़ती-मिचमिचाती आँखें। सिर पर टोपी, और कानों के ऊपर चश्मा, जिसकी कमानी प्रायः टूटी होती थी और टूटे हुए हिस्से पर सलीके से बँधा धागा उनकी सादगी और संघर्ष की कहानी कहता था। वे थे हमारे निर्विकार प्राणी, हमारे डाक चाचा!
कड़ाके की ठिठुरती सर्दी हो, या जेठ की तपती दुपहरी, आकाश को चीरती आंधी हो या मूसलाधार पानी—मौसम कोई भी हो, अगर कोई ख़त, पार्सल, तार या मनीऑर्डर है, तो उन्हें आना ही है। कर्तव्य-निष्ठा का इससे बड़ा उदाहरण भला क्या हो सकता है? वे केवल डाक नहीं बाँटते थे, वे तो आशाएँ, चिंताएँ, और अनगिनत सपने वितरित करते थे।
वे जब भी आते, नीरव दोपहरिया में… उनके साइकिल की पुरानी खड़खड़ाहट, और घंटी का टन-टन—यह संगीत उनके आगमन की सूचना गाँव को पहले ही दे देता था। और इस ध्वनि के साथ ही, लोगों के दिलों की धड़कन बढ़ जाती थी। उस पल इन्तजार की घड़ियाँ कितनी लंबी और कलेजा कंपकंपाने वाली होती थीं, इसका अनुभव केवल उस युग के लोग ही कर सकते थे। हमारे यहाँ डाक चाचा बुधवार और शनिवार को आते थे, और इन दो दिनों का इंतज़ार पूरे सप्ताह की साँसों में घुला रहता था।
कितनी उत्सुक निगाहें, धड़कते दिल उनकी प्रतीक्षा में पलक-पाँवड़े बिछाए रहते! वे भी जिसकी चिट्ठी होती या जो भी अमानत होती, ठीक उसके मकान के सामने साइकिल खड़ी कर एक आवाज़ लगाते: “चिट्ठी… मनिआर्डर… तार… पार्सल…!” घर के लोग लपककर बाहर निकलते—”हाँ डाक-बाबू…!” वे किसी के चाचा थे, किसी के भईया, और बुजुर्गों के तो वे ‘डाक दुलरूवा’ थे—स्नेह और सम्मान से पूजित।
नवविवाहिताएँ अगर ससुराल में होतीं, तो नैहर (मायके) की चिट्ठी का इंतज़ार करतीं; और यदि मायके में होतीं, तो ससुराल, विशेषकर पति के खत का बेसब्री से इंतजार उनकी हर साँस में घुला रहता था। घर के बुजुर्ग उन्हें बुलाकर उनकी अमानत थमाते, और वे नववधुएँ उस पत्र को आंचल में छुपाए अपने कमरे की ओर भागतीं। उन दिनों बिजली का प्रवेश हमारे ग्रामीण जीवन में नहीं हुआ था, अतः मिट्टी के घर प्रायः अंधेरे ही रहते थे। किन्तु, उन युवा आँखों में तेज रोशनी थी, और दिल में जज़्बात का ज्वार। चिट्ठी से आधी मुलाकात होती, और शेष आधी, हृदय की कल्पनाएँ पूर्ण कर देती थीं।
कोई मंद-मंद मुस्कुराती, तो कोई सिसकती और अगले पत्र का इंतज़ार करतीं…! एक-एक पत्र कई-कई बार पढ़ा जाता, हर शब्द को महसूस किया जाता। प्रेम और सम्मान में वे अपने नाज़ुक हाथों से डाक-बाबू के लिए मीठे गुड़ का शरबत, छाछ, या पालतू भैंस-गाय के दूध की चाय बनाकर पिलातीं। गाँव-गाँव घूमते डाक-बाबू धन्य हो जाते, उनका जी जुड़ा जाता। उनके होंठों से सहज ही आशीर्वाद निकलता: “जीती रहो बिटिया…!” “मालिक का इकबाल बना रहे…;” और फिर वे अपनी अगली मंज़िल की ओर बढ़ जाते।
उन दिनों लिफाफे, अन्तर्देशीय पत्र और पोस्ट कार्ड पर चिट्ठी लिखी जाती थी। कभी-कभी ‘बैरंग पत्र’ भी आता, जिस पर टिकट नहीं लगा होता था, पर वह ज़रूर पहुँचता, क्योंकि उसके दुगुने पैसे पाने वाले को दण्ड-स्वरूप देना होता था—यह एक अनूठा नियम था जो संदेश के महत्व को रेखांकित करता था। पार्सल से कपड़े और ज़रूरी सामान, विशेषकर तीज-त्यौहार में, मँगाए जाते थे। जो स्वयं नहीं आ सकता था, वह डाक का सहारा लेता—सुरक्षित, सर्वसुलभ। पार्सल, मनीऑर्डर और शुभ संदेश लाने पर प्राप्तकर्ता स्वेच्छा से डाक-बाबू को बख्शीश देते थे, जिसे वे प्रसाद के समान ग्रहण करते थे। आपस में सभी का यह रिश्ता बेहद अद्भुत और मनोरम था।
हम बच्चे उन दिनों आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले फरमाइशी फिल्मी गीतों के लिए पोस्टकार्ड पर अपना, मित्रों और गाँव का नाम लिखकर लाल रंग से रंगे पत्रपेटी में डालते थे। और रेडियो पर जब अपना नाम सुनकर खुश होते थे, वैसी प्रसन्नता आज की तमाम आधुनिक उपलब्धियों पर भी दुर्लभ है।
समय बदला, हम बड़े हुए। स्व-लिखित कथा, कहानी, लेख लिफाफे में भरकर, वापसी का डाक टिकट लगा हम भेजने लगे। पुस्तकों की स्वीकृति, अस्वीकृति, और पारिश्रमिक—ये सब डाक-चाचा ही लाते। वे हमें ढेरों आशीर्वाद देते: “बिटिया, खूब पढ़ो-लिखो, गाँव-जवार, बाप-दादा का नाम रौशन करो…” डाक चाचा का यह आशीर्वाद हमारे सिर पर होता और हम झुककर उनका चरण स्पर्श करते।
डाक चाचा हमारे लिए किसी देवदूत, सांता क्लॉज़, या फरिश्ते से कम नहीं थे। वे हमारे मनोवांछित, चिर-प्रतीक्षित संदेशों को दूर देश से अपने भूरे रंग के घिसे हुए थैले से निकालकर पकड़ाते थे। पाने वाले के हर्ष का पारावार नहीं रहता। लाखों दुआएँ डाक चाचा के लिए निकलतीं, “जल्दी संवाद लाना…!”
डाक चाचा होंठों में मुस्काते। अब उन्हें कौन समझाए, “कि जब कोई भेजेगा, तभी तो ला पाऊँगा…!” “ज़रूर,” कहकर वह साइकिल पर ‘यह जा, वह जा’ होते। नया अनाज हो, ताज़ा सब्ज़ियाँ, फल, दूध-दही, घी या पकवान—ग्रामीण अपनी ओर से उन्हें अवश्य भेंट करते। चाचा के पास भी अतिरिक्त थैला रहता था, जिसमें वे यह उपहार खुशी-खुशी अपने घर ले जाते। ज़रूरत मंदों के मनुहार पर वे शहर से छोटा-बड़ा सामान या दवा भी ला देते थे। वे सहर्ष सुख-दुख, छठी-छिला (जन्म संबंधी उत्सव) में शरीक होते थे। वे हर दिल के अघोषित हमराज़, एक सच्चे सखा थे।
अब न वह ग्रामीण जीवन रहा, न डाक के प्रति वह आकर्षण। क्योंकि अब सब-कुछ फ़ोन, मोबाइल और इंटरनेट के सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। एक ही ख़बर कई प्रकार से सोशल मीडिया पर छाई रहती है, जिससे एक उकताहट सी होती है। वह कौतूहल, वह आकर्षण अब पैदा नहीं होता, जो हाथ से लिखी चिट्ठी और डाक चाचा के प्यारे बोल से प्राप्त होता था।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना- डॉ. उर्मिला सिन्हा ©®