सच तो यह है कि आधुनिक युद्धों में सबसे ज्यादा नुकसान आम नागरिकों का होता है। अत्याधुनिक हथियारों और बमों का इस्तेमाल सैन्य ठिकानों के साथ-साथ रिहायशी इलाकों को भी निशाना बनाता है। युद्ध के कारण बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, रोज़गार और सामाजिक ढांचा पूरी तरह चरमरा जाता है। युद्ध की विभीषिका केवल सीमा पर नहीं, बल्कि हर घर, हर दिल में दर्द और भय का कारण बनती है।
(विनोद आनंद)

म ध्य-पूर्व में ईरान, इज़राइल और अमेरिका के बीच छिड़ा युद्ध अब विश्व-स्तरीय संकट का रूप ले चुका है। अमेरिका द्वारा ईरान के तीन प्रमुख परमाणु ठिकानों—फोर्डो, नतांज और इस्फहान—पर सीधे हमले ने न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक शांति को भी गंभीर खतरे में डाल दिया है। इस युद्ध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य देश भी अलग-अलग गुटों में बंट गए हैं, जिससे संयुक्त राष्ट्र की निष्पक्षता और औचित्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
अब तक सैकड़ों आम नागरिक मारे जा चुके हैं, हजारों घायल हैं और लाखों लोग बेघर हो गए हैं। युद्ध का असर केवल दो देशों तक सीमित नहीं रहता; इसका दुष्प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है—आर्थिक अस्थिरता, शरणार्थी संकट, ऊर्जा संकट और वैश्विक बाजारों में उथल-पुथल इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
परमाणु ठिकानों पर हमले के बाद विकिरण का खतरा और बढ़ गया है, जिससे आने वाले दशकों तक लाखों लोगों के स्वास्थ्य, पर्यावरण और जीवन पर गंभीर असर पड़ सकता है। यदि रूस और चीन जैसे शक्तिशाली देश भी इस युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से शामिल होते हैं या जैविक हथियारों का प्रयोग होता है, तो यह पूरी मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के अनुभव के बावजूद, लोग युद्ध की इस विभीषिका और संभावित संकट को लेकर लापरवाह क्यों हैं, यह समझ से परे है।
अमेरिका, जो दशकों से खुद को वैश्विक शांति का प्रहरी और मध्यस्थ बताता आया है, उसका सीधे युद्ध में उतरना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। उसकी भूमिका शांति स्थापना और मध्यस्थता की होनी चाहिए थी, न कि प्रत्यक्ष आक्रमण की। इस कदम ने न केवल संयुक्त राष्ट्र की साख को कमजोर किया है, बल्कि वैश्विक कानून और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की भी अवहेलना की है।
यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपात बैठक में युद्ध के विरुद्ध किसी प्रस्ताव पर कोई एक देश वीटो लगा देता है, तो संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठ जाता है। जिस संस्था को विश्व शांति की गारंटी माना जाता था, वह आज शक्तिशाली देशों की राजनीति और गुटबाजी में फंसकर अपनी अहमियत खोती जा रही है।
सच तो यह है कि आधुनिक युद्धों में सबसे ज्यादा नुकसान आम नागरिकों का होता है। अत्याधुनिक हथियारों और बमों का इस्तेमाल सैन्य ठिकानों के साथ-साथ रिहायशी इलाकों को भी निशाना बनाता है। युद्ध के कारण बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, रोज़गार और सामाजिक ढांचा पूरी तरह चरमरा जाता है। युद्ध की विभीषिका केवल सीमा पर नहीं, बल्कि हर घर, हर दिल में दर्द और भय का कारण बनती है।
अब समय आ गया है कि दुनिया के सभी देश गुटबंदी छोड़कर एकजुट हों और युद्ध को रोकने के लिए निर्णायक कदम उठाएं। युद्ध किसी समस्या का हल नहीं, बल्कि नई समस्याओं की जननी है। सभी देशों को मिलकर निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए—
संयुक्त राष्ट्र को निष्पक्ष और प्रभावी भूमिका निभानी चाहिए; दोषी कोई भी हो, उस पर अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत कार्रवाई हो।
सभी पक्षों को युद्धविराम और संवाद की प्रक्रिया तुरंत शुरू करनी चाहिए।
परमाणु और जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर सख्त प्रतिबंध लगना चाहिए।
मानवीय सहायता और पुनर्वास के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयास तेज किए जाएं।
युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को सजा दिलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की प्रक्रिया को मजबूत किया जाए।
अंत में कहना चाहूंगा कि जब तीसरे विश्व युद्ध की आहट सुनाई दे रही है, तब पूरी मानवता पर संकट मंडरा रहा है। यह युद्ध केवल दो देशों या सेनाओं के बीच नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता, उसकी संस्कृति, विरासत और भविष्य के लिए खतरा है। यदि युद्ध नहीं रुका, तो इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा।
संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक समुदाय को अब अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए—निष्पक्षता, मानवता और शांति के लिए, ताकतवर हो या कमजोर, हर देश के लिए एक समान कानून और न्याय होना चाहिए। आज युद्ध रोकना ही सबसे बड़ी जरूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित, शांतिपूर्ण और खुशहाल दुनिया मिल सके।
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