शिबू सोरेन तीन-तीन बार मुख्यमंत्री, अनेकों बार मंत्री, पर कभी ‘पथ प्रदर्शक’ से ज्यादा कुछ बनने की चाह नहीं रही। वर्ण-वर्ग, धरम-जाति की बेड़ियों को तोड़कर उन्होंने जैगदा, जंगल और जवार को एक नई चेतना दी।
–विनोद आनंद
धरती के गर्भ में पसरी लाल मिट्टी पर जब सूरज की पहली किरणें पड़ती हैं, तो झारखंड के पहाड़ों, जंगलों और सुदूर गांवों में इतिहास की सांसें गरज उठती हैं। यही है वह जमीन—जहाँ हर सुबह आदिवासी अस्मिता, न्याय की पुकार और विद्रोह का संगीत छेड़ती है। और इसी संगीत में गूँजते हैं दिशोम गुरु शिबू सोरेन के नाम, जिन्होंने न केवल अपने लोगों की नियति को बदला, बल्कि बगावत को पूजा की तरह पवित्र बना दिया।
अंधेरे में चिंगारी: पिता की हत्या और प्रतिकार का संकल्प
छोटानागपुर की पहाड़ियों के नीचे बरसता हुआ बचपन—जहाँ रामगढ़ के एक खुशनुमा गांव में 11 जनवरी 1944 की रात चूल्हे की आग में सिर्फ रोटियां नहीं, उम्मीदें भी सिंकती थीं। लेकिन 27 नवंबर 1957 की प्रभात ने शिबू की दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया—पिता सोबरन सोरेन की लहूलुहान देह ने संवेदनाओं को झकझोर दिया। इस क्षण ने शिबू में बगावत के बीज बो दिये, आँखों में बदले की चिंगारी थी, हृदय में समाज का वो दर्द जो महाजनों के सूदखोरी जाल में तड़प रहा था।
पिता की अर्थी के सन्नाटे ने उन्हें शेर बना दिया। पढ़ाई वहीं थम गई, पर आंखों की रोशनी दूर तक देखती रही—”अब अन्याय के आगे झुकना पाप है।”
जंगल का न्याय, मांदर की पुकार
शिबू का बचपन बीता उन गलियों में जहाँ गिद्धों-सी नजर रखने वाले महाजन बैठे रहते। खेतों की हरियाली पर काले साये, आदिवासी किसानों के हिस्से में हमेशा भूख, अभाव और गिरवी पड़े सपने। जाड़े की रातों में, अंगीठी की राख से गर्म हाथों के बीच शिबू अपने दोस्तों को सुनाते—”हम लड़ेंगे, हमारा हक़ वापस लेकर रहेंगे!”
धीरे-धीरे यह आवाज़ जंगलों में मांदर की थाप बन गई। धनकटनी आंदोलन—जहाँ तीर-कमान के साये में खेतों पर उतरती स्त्रियां, गीतों के बीच मुनादी होती कि ‘आज फसल हमारी है!’ हर बार तीरों की चमक खेत के डर को चीर देती, और जमींदार—महाजन थर्राते।
आंदोलन की आग में तपते साल
1970 के दशक की हवा गर्म थी। बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के बाद ‘मुक्ति’ शब्द क्रांति का श्रृंगार बन गया था। झारखंड के इन जंगलों में भी वह आग पहुँच चुकी थी, और शिबू सोरेन उस चिंगारी का नाम बन गये। उन्होंने बिनोद बिहारी महतो, ए.के. राय के साथ रामगढ़ में आँधी उठाई—राजनीतिक बदलाव का सपना देखा, झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव पड़ी।
धरती की गीली गंध, चिलचिलाती दोपहरी में सभा—शिबू गरजते, “यह राज्य अलग होगा, ये जमीन हमारी है, इसे कोई चेनेगा नहीं!”
गुलामी, शोषण और जमींदारी के ताबूत में कील ठोकने का नाम था—शिबू सोरेन की बगावत। उनके रुख पर जंगल का सन्नाटा भी बोल उठता, ‘गुरुजी आ गये हैं।’
जेल की कोठरी में दरिया दिल
25 जून 1975 को जब देश में आपातकाल ने लोकतंत्र की सांसें थामी, तो झारखंड के जंगलों में भी खौफ का परिंदा उड़ने लगा। शिबू ने आत्मसमर्पण किया और धनबाद जेल पहुँचे। पर यहाँ भी उनका दिल टुकड़े-टुकड़े होने से न बचा।
छठ का महापर्व, जेल में बन्द महिला कैदी करुणा से गीत गा रही थी। गुरुजी इस आवाज़ को सुनकर अनजान भावुकता में डूब गये। समाज की बेड़ियों से परे इंसानियत के लिए उन्होंने जेल में सहयोगियों से एक वक्त का खाना छोड़ा, सामूहिक छठ पूजा का इंतज़ाम करवाया—यहाँ भी उनका नेतृत्व, दया और संघर्ष साथ-साथ खड़े दिखे।
विद्रोही जीवन के किस्से
कभी वह अपने ही चाचा को, उनके शराब पीने की लत पर पीटने को उतारू हो जाते; कभी रास्ते में अचानक कचहरी बैठाकर गाँव की बिटिया की इज्ज़त के लिए तत्काल न्याय सुना देते—शिबू सोरेन का संघर्ष हर बार व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों तरह से गूंजता रहा। वे अपने आदिवासियों के लिए नायक ही नहीं, इस पूरे भूभाग के मार्गदर्शक बन गये। रात को पुलिस जंगल घेर लेती, वे डुगडुगी बजाकर अपने लोगों को इशारा करते—एक अनकहा अनुबंध, जिसमें उनका सुरक्षा चक्र बन जाता था जंगल का हर वृक्ष, हर छांव।
अलग राज्य का सपना: राजनीति की युद्धभूमि
निर्दयी सत्य यह है कि बड़ा आंदोलन बार-बार कुचला जाता है, लेकिन बार-बार पुनर्जन्म भी लेता है। शिबू भी हार के बाद कभी नहीं थके—चुनावी पराजय के बाद 1983 में जीत, बिहार विधानसभा में कांग्रेस के साथ गठबंधन, वर्षों की संग्राम यात्रा के बाद 15 नवंबर 2000—झारखंड देश का नया राज्य।
तीन-तीन बार मुख्यमंत्री, अनेकों बार मंत्री, पर कभी ‘पथ प्रदर्शक’ से ज्यादा कुछ बनने की चाह नहीं रही। वर्ण-वर्ग, धरम-जाति की बेड़ियों को तोड़कर उन्होंने जैगदा, जंगल और जवार को एक नई चेतना दी।
“मुक्ति” की छाया, “दिशोम गुरु” की जलती मशाल
दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में जब 4 अगस्त 2025 की सुबह उनकी सांसे रुकी, तब सारा झारखंड रो पड़ा। उस सुबह जंगलों में चिड़ियों का शोर कम और घर-घर में मांदर की तूफानी थाप ज्यादा थी। लोग खुद से कहते—वह गया नहीं, वह तो हर वीरान खेत, हर आदिवासी उत्सव और हर बच्चे के सपनों में जिन्दा रहेगा।
अंतिम दृश्य
कोई सुदूर गाँव—अंधेरे में एक मांदर की थाप, तीर-कमान संभाले युवक, दूर पहाड़ियों पर धान की बालियों में शिबू की मुस्कान छुपी है। एक बच्चा अपनी दादी से सुनता है—”बेटा, ये दिशोम गुरु की धरती है। उन्होंने अन्याय के खिलाफ हजार साल की रोशनी जला दी थी।”
आकाश के तारे देखकर कोई आदिवासी सोचता है, “धरती आबा बिरसा मुंडा की तरह, दिशोम गुरु भी कभी नहीं मरते—वे समय के सन्दूक में सहेज लिए जाते हैं।”
आखिर में, जब झारखंड की नदियों में आदिवासी नाव आहिस्ता-आहिस्ता चलती है, और हवा में ‘मुक्ति’ का गीत तैरता है, तो शिबू सोरेन की बगावत—मृत्यु से परे, मिट्टी में मिले संघर्ष की खुशबू बनकर हमेशा-हमेशा इन पहाड़ों-जंगलों से गुजरती रहती है।