धानुक समुदाय, जो संख्या में महत्वपूर्ण होने के बावजूद, राजनीतिक शक्ति के वितरण में हमेशा हाशिये पर रहा है, अब प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर वास्तविक सत्ता में हिस्सेदारी की मांग कर रहा है। उनकी मांग है कि अगर 35 सीटों का हक है, तो वह टिकट आवंटन में भी दिखना चाहिए। यह सीधे तौर पर दशकों की अनदेखी और केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाता है।
बि हार की राजनीतिक भूमि इन दिनों एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है, जहाँ पुराने समीकरण ध्वस्त हो रहे हैं और नए सामाजिक समीकरण आकार ले रहे हैं। इस हलचल के दौड़ में फिल्मकार, सामाजिक कार्यकर्ता और जनसेवक एन. मंडल भी हैं जिनकी बढ़ती राजनीतिक सक्रियता ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या वे 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी में हैं?
उनकी मुखरता और सामाजिक न्याय के लिए बुलंद आवाज ने खासकर धानुक समाज और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में एक नई उम्मीद जगाई है, जो सदियों से राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा है।
“पद नहीं, प्रतिनिधित्व चाहिए”: सदियों की उपेक्षा का प्रतिध्वनि
एन. मंडल के हालिया सोशल मीडिया पोस्ट, जिनमें वे “पद नहीं, प्रतिनिधित्व चाहिए” और “सम्मान प्रतीकात्मक नहीं, सत्ता में भागीदारी चाहिए” जैसे सशक्त विचार उठा रहे हैं, केवल नारे नहीं हैं, बल्कि यह सदियों से उपेक्षित धानुक समाज और ईबीसी वर्ग की गहरी पीड़ा और आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। यह समुदाय, जो संख्या में महत्वपूर्ण होने के बावजूद, राजनीतिक शक्ति के वितरण में हमेशा हाशिये पर रहा है, अब प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर वास्तविक सत्ता में हिस्सेदारी की मांग कर रहा है। उनकी मांग है कि अगर 35 सीटों का हक है, तो वह टिकट आवंटन में भी दिखना चाहिए। यह सीधे तौर पर दशकों की अनदेखी और केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाता है।
धानुक समाज की मांग: क्यों चाहिए राजनीतिक भागीदारी?
धानुक समाज, जो बिहार के ईबीसी वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इस जाति के लोगों ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर उपेक्षा का सामना किया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में यह समुदाय अक्सर पिछड़ा रहा है।
जब मंडल जैसे युवा नेता “2025 विधानसभा चुनाव: धानुक समाज की हुंकार — अब वादा नहीं, सत्ता में हिस्सा चाहिए!” जैसे संदेश के साथ सामने आते हैं, तो यह उस गहरी भावना को दर्शाता है कि अब केवल सरकारी योजनाओं या छोटे-मोटे पदों से काम नहीं चलेगा। उन्हें अपनी आवाज, अपनी समस्याओं और अपनी आकांक्षाओं को सीधे विधानसभा में उठाना है। राजनीतिक भागीदारी उनके लिए केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अपने समुदाय के उत्थान और बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने का माध्यम है। यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि नीतियाँ बनाते समय उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं और चुनौतियों को ध्यान में रखा जा सके।
जन समर्थन और राजनीतिक दलों की उत्सुकता
एन. मंडल की बढ़ती सक्रियता इस बात का प्रमाण है कि समाज एक ईमानदार, पढ़े-लिखे और संघर्षशील नेतृत्व की तलाश में है। “एन. मंडल जैसे व्यक्ति को हमारा प्रतिनिधित्व करना चाहिए” और “आप राजनीति में आइए, हम सब आपके साथ हैं” जैसी जन भावनाएँ स्पष्ट संकेत देती हैं कि उन्हें एक स्वीकार्य चेहरा माना जा रहा है। विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा 35 सीटों पर हिस्सेदारी की मांग के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की मुहिम भी चल रही है।
दिलचस्प बात यह है कि एन. मंडल की स्वीकार्यता केवल समाज के भीतर नहीं, बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी बढ़ रही है। राजद, जदयू, भाजपा, जनसूराज, वीआईपी और लोजपा (रामविलास गुट) जैसे प्रमुख दलों के नेताओं के साथ उनके मंच साझा करने और तस्वीरें इस बात का प्रमाण हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री विनोद तावड़े द्वारा उनकी प्रशंसा यह दर्शाती है कि प्रमुख दल भी उनकी क्षमता और सामाजिक प्रभाव को पहचान रहे हैं। यह स्थिति उन्हें 2025 के चुनाव में एक महत्वपूर्ण दावेदार के रूप में स्थापित करती है।
2025 में यह समीकरण एक संभावित गेम चेंजर
यह लगभग तय माना जा रहा है कि एन. मंडल जैसे कई युवा 2025 के विधानसभा चुनाव में किसी प्रमुख सीट से मैदान में उतर सकते हैं। यदि कोई प्रमुख राजनीतिक दल उन्हें अपना प्रत्याशी बनाता है, तो धानुक समाज सहित समूचे ईबीसी वर्ग का एकीकृत समर्थन उन्हें एक मजबूत सामाजिक गठजोड़ प्रदान करेगा, ऐसा उम्मीद है जिससे वे चुनावी समीकरणों को बदलने की क्षमता रखेंगे। उनकी उम्मीदवारी न केवल एक सीट के परिणाम को प्रभावित कर सकती है, बल्कि पूरे बिहार में ईबीसी वोटों के ध्रुवीकरण का कारण भी बन सकती है।
यदि किसी कारणवश राजनीतिक दल उन्हें अवसर देने में चूकते हैं, तो एक स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर भी वे चौंकाने वाला प्रदर्शन कर सकते हैं। यह बिहार की राजनीति में एक नई जमीन तैयार कर रहा है – एक ऐसी जमीन जहाँ सदियों से उपेक्षित समुदायों की आवाजें अब सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी की मांग कर रही हैं, और जनसेवक एन. मंडल इस नई चेतना के प्रतीक बनकर उभर रहे हैं। क्या बिहार की मुख्यधारा की राजनीति इस बढ़ती हुई आवाज को समायोजित कर पाएगी, या फिर एक नया राजनीतिक अध्याय लिखा जाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा।