झंझारपुर प्रखंड के दीप गांव के दो बहादुर युवा, पूरन मंडल और पंचानन झा, 18 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकूमत की गोलियों का शिकार हुए थे। इसी तरह, 13 अगस्त 1942 को जयनगर में नथुनी साह भी अंग्रेजों की गोली से शहीद हुए थे।
इन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए नेता और मंत्री अक्सर इनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करते हैं, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज तक इन्हें आधिकारिक तौर पर शहीद का दर्जा नहीं मिल पाया है। इनके बलिदान को याद रखने के लिए इनकी जीवन गाथा को पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल नहीं किया गया है। आइए, मधुबनी जिले के इन तीन गुमनाम शहीदों की शौर्य गाथा को जानते हैं।
लेख :-विनोद आनंद
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों लोगों ने अपना बलिदान दिया. इनमें से कुछ नाम तो इतिहास के पन्नों में अमर हो गए, लेकिन कई ऐसे भी हैं जिनकी कुर्बानियों को शायद ही कभी याद किया गया हो. मिथिला क्षेत्र, जो अपनी कला, संस्कृति और परंपरा के लिए विश्व प्रसिद्ध है, वह भी उन क्षेत्रों में से एक है जिसकी मिट्टी को अनगिनत शहीदों के खून से सींचा गया है. अगस्त क्रांति के दौरान यहाँ के वीर सपूतों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और अपनी जान की बाज़ी लगा दी. लेकिन दुख की बात यह है कि इन शहीदों को इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
यह लेख, अगस्त क्रांति के गुमनाम नायकों, विशेष रूप से पूरन मंडल, पंचानन झा और नथुनी साह के बलिदान पर केंद्रित है, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया.
मिथिला की मिट्टी का गौरव
मिथिलांचल की धरती पर जंगे आज़ादी की ज्वाला तब और भी तेज़ हो गई जब महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस कमेटी द्वारा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया गया. गांधीजी ने देशवासियों से आह्वान किया कि वे अपनी स्वतंत्रता के लिए हर संभव प्रयास करें. लेकिन अगले ही दिन, अंग्रेजों ने गांधीजी सहित सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. इससे देशभर में निराशा और आक्रोश फैल गया, और जनता ने खुद ही इस आंदोलन की बागडोर संभाल ली.
मिथिलांचल में, इस आंदोलन की शुरुआत 10 अगस्त 1942 को हुई. दरभंगा और मधुबनी जैसे शहरों में, लोगों ने जबरदस्त हड़तालें और प्रदर्शन किए. जल्द ही, यह आंदोलन एक जन-आंदोलन में बदल गया और जगह-जगह तोड़फोड़ और विरोध प्रदर्शन होने लगे.
अगस्त क्रांति के पहले शहीद: नथुनी साह
जब देश के सभी बड़े नेता जेल में थे, तब मिथिलांचल के युवा आगे आए और उन्होंने आंदोलन को एक नई दिशा दी. 13 अगस्त 1942 को, जयनगर में हजारों की संख्या में छात्रों, मजदूरों और आम लोगों का एक विशाल जुलूस तिरंगा झंडा लिए ‘करेंगे या मरेंगे’ और ‘अंग्रेजी राज का नाश हो’ जैसे नारों के साथ आगे बढ़ा. इस जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे छात्र नेता पंडित गुलाब झा, राजेंद्र प्रसाद, पलट चौधरी और अन्य कई युवा.
जब यह शांतिपूर्ण जुलूस जयनगर थाना की ओर बढ़ा, तो भयभीत अंग्रेज सिपाहियों ने बिना किसी उकसावे के गोलियां चला दीं. पहली गोली नथुनी साह के सीने को भेद गई. तिरंगा हाथ में लिए हुए, वे गिर पड़े और अगस्त क्रांति के पहले शहीद बन गए. उनकी शहादत ने भीड़ को और भी आक्रोशित कर दिया. लोग उनके शव को पुलिस के कब्जे से निकालने के लिए उतावले हो गए. आखिरकार, लोगों के आक्रोश के सामने पुलिस को झुकना पड़ा और नथुनी साह के शव को जुलूस के साथ पूरे जयनगर में घुमाया गया. आज भी जयनगर में उनके नाम पर ‘शहीद चौक’ है, जो उनकी वीरता की कहानी कहता है.
पूरन मंडल और पंचानन झा का बलिदान
पंचानन झा औऱ पूरन मंडल
नथुनी साह की शहादत ने मिथिलांचल के युवाओं में एक नई ऊर्जा भर दी. जयनगर के बाद, यह आग झंझारपुर तक पहुंच गई. झंझारपुर प्रखंड के दीप गांव के दो युवा, पूरन मंडल और पंचानन झा, ने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. वे दोनों अगस्त क्रांति के प्रमुख नायक बन गए.
पूरन मंडल और पंचानन झा ने झंझारपुर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया. हाथों में तिरंगा लिए, वे लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे. झंझारपुर रेलवे स्टेशन के पास, अंग्रेजों ने उन पर गोली चला दी. भारत माता के ये दोनों वीर सपूत अंग्रेज़ी गोलियों के शिकार हुए और उन्होंने उसी क्षण वीरगति प्राप्त की. वे दोनों युवा अपनी मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते शहीद हो गए.
आज उनकी शहादत को याद रखने के लिए, दीप गांव के प्राथमिक विद्यालय में उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं, जहाँ हर साल उनके शहादत दिवस पर लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा होते हैं.
गुमनामी का दुखद सच
जयनगर का शहीद चौक
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि नथुनी साह, पूरन मंडल, पंचानन झा जैसे सैंकड़ों शहीदों की कुर्बानियों को इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. इनकी कुर्बानियों को न तो इतिहास के पन्नों में जगह मिली और न ही इन्हें शहीद का दर्जा दिया गया.
यह सिर्फ इतिहास लेखकों की ही भूल नहीं, बल्कि आजादी के बाद से अब तक बनी सभी सरकारों ने भी इन शहीदों की उपेक्षा की है. इन शहीदों को न्याय दिलाने के लिए, कई लोगों ने आवाज़ उठाई, आंदोलन किए, लेकिन फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली.
स्थानीय स्तर पर, इन शहीदों की याद में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इनमें राजनेता, मंत्री, सांसद और विधायक भी मंच पर आते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं. लेकिन, किसी ने भी सरकार पर दबाव डालकर इन शहीदों को शहीद का दर्जा दिलाने या उनकी जीवनी को पाठ्यपुस्तकों में शामिल कराने का प्रयास नहीं किया. यह एक दुखद सच्चाई है कि हम अपने असली नायकों को भूलते जा रहे हैं और नई पीढ़ी को उनके जीवन, संघर्ष और बलिदान से परिचित नहीं करा पा रहे हैं.
अंत मे यही कहना चाहूंगा की अगस्त क्रांति में मिथिला का योगदान अतुलनीय है. नथुनी साह, पूरन मंडल, पंचानन झा और उनके जैसे कई गुमनाम नायकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर यह साबित कर दिया कि जब मातृभूमि की पुकार आती है तो मिथिला का हर सपूत आगे बढ़कर अपनी जान कुर्बान करने को तैयार होता है.
यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम इन शहीदों के बलिदान को याद रखें और उन्हें वो सम्मान दिलाएं जिसके वे हकदार हैं. यह न सिर्फ उनके प्रति हमारी कृतज्ञता होगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी उनके साहस और देशप्रेम से प्रेरणा मिलेगी. हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इन शहीदों की कहानियाँ पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनें ताकि भविष्य की पीढ़ी को पता चले कि स्वतंत्रता सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों के बलिदान से नहीं, बल्कि असंख्य गुमनाम नायकों के रक्त से मिली है.
आज भी इतिहास इन शहीदों पर मौन है, लेकिन उनकी कहानियाँ मिथिला की हवा में गूँजती हैं, हमें याद दिलाती हैं कि स्वतंत्रता का यह महान भवन गुमनामी में भी अपने प्राणों को देने वाले वीरों के बलिदान पर खड़ा है.