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अमर शहीद रामफल मंडल: गुमनामी से अमरता तक की एक शौर्य गाथा

ByBinod Anand

Aug 10, 2025

वर्ष 1942 में गांधी की पुकार पर, भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराने के लिए, बिहार की धरती से क्रांति की ज्वाला भड़की थी। इसी पावन ज्वाला के एक जांबाज सिपाही थे शहीद रामफल मंडल, जिन्होंने अपने लहू से स्वाधीनता के इतिहास का एक नया अध्याय लिखा। उनका सर्वोच्च बलिदान आज भी हमें देशभक्ति की प्रेरणा देता है।जानिये उनके संघर्ष औऱ शहादत की कहानी…?

लेखक:-विनोद आनंद

ज सीतामढ़ी का छोटा सा गांव बाजपट्टी चर्चा में है, चर्चा का कारण सरकार की योजना या वर्तमान में सरकार की कोई बड़ी उपलब्धि नहीं बल्कि एक ऐसे बीर शहीद की गाथा क़ो लेकर है जिसके बारे में आज की पीढ़ी क़ो जिज्ञासा है। लोग उसके बारे में जानना चाहते हैं! वह व्यक्ति है रामफल मंडल!

वह रामफल मंडल जिसे आजादी की लड़ाई में भाग लेने के बाद जब अंग्रेजी हुकूमत ने पूछा तुम्हे जिंदगी चाहिए या मौत, जिंदगी चाहिए तो माफ़ी मांग लो औऱ कह दो हम दोषी नहीं हैं, औऱ नहीं जिंदगी चाहिए तो सच बता दो औऱ फांसी पर झूल जाओ। इस ऑप्शन के बाद वह फांसी चुना औऱ देश के लिए कुर्बान हो गया।

आज वैसे बीर सपूत क़ो किसी ने इतिहास के पन्नों में तो छोड़िये हाशियों पर भी स्थान नहीं दिया।

लेकिन आज गाँव की गलियों में, बूढ़े बुजुर्ग रामफल मंडल की कहानियां सुनाते हैं—वह न ऊँचे ओहदों पर थे, न ही उनका जन्म किसी धनाढ्य घराने में हुआ, लेकिन उनकी क्रांति, संघर्ष और बलिदान बिहार ही नहीं, पूरे भारत की आत्मा में आज सजीव हैं।

यह कहानी उस युवा वीर की, जिसने अपने जज़्बे, निडरता और अंतहीन मातृभूमि-प्रेम के लिए अपने जीवन का चिराग बुझा दिया; और जिनका नाम विश्व इतिहास के झरोखे में गुमनाम-सा हो गया।

बचपन: अनुशासन, संघर्ष और नई उम्मीदों की आहट

6 अगस्त 1924। पूरा मधुरापुर गांव धान की बालियों की हरी-भरी उम्मीदों से लहलहा रहा था। इन्हीं दिनों, गोखुल मंडल के घर एक बेटे का जन्म हुआ। नाम रखा गया—रामफल।

किसान घराने में जन्मे रामफल के बचपन में संसाधनों की कमी थी, लेकिन उनके भीतर कुछ था—एक बेचैन जिजीविषा, सवाल करने की आदत, और सपनों में था आज़ाद भारत का स्वप्न।

पिता, गोखुल मंडल, ईमानदार और मेहनती किसान थे, माँ गरबी देवी को बेटे की कलात्मक सूझ-बूझ पर गर्व था। घर में गरीबी थी, लेकिन आत्मसम्मान की पूंजी उस परिवार के पास अपार था।

रामफल का बचपन आम बच्चों की तरह घुटनों के बल खेतों में फिसलते, नदी में तैरते, बकरियां चराते बीता। परंतु बचपन में उनके सामने ही गांव में बेगारी, यातना, और अंग्रेजों की लाठियों की गूंज सुनाई देती थी। यही घटनाएं उन्हें सामान्य जीवन से कहीं आगे-पीछे धकेलने लगीं।

16 वर्ष की छोटी आयु में, गांव की परंपरा के अनुसार उनका विवाह जगपतिया देवी से हो गया। पर वह बाल विवाह उनकी आग को बुझा न सका। रामफल के भीतर, देशभक्ति कथाओं ने पुकारना शुरू किया था—कुछ तो करना है देश के लिए।

स्वतंत्रता का सपना और असंतोष की चिंगारी

भारत छोड़ो आंदोलन का उबाल देशभर में महसूस किया जा सकता था। दिल्ली से लेकर गांव-गांव, खेत-खलिहान तक, हर जगह नई आज़ादी की चाहत थीं।

महात्मा गांधी की आवाज़, “अंग्रेजों, भारत छोड़ो!”, उन गांवों तक भी पहुंच चुकी थी, जहां कल तक लोगों को यह भी नहीं पता था कि दिल्ली कितनी दूर है।

रामफल मंडल, अब मात्र 18-19 वर्ष के थे। लेकिन उनके आंखों की चमक और हृदय की गति इस देशव्यापी क्रांति के स्वरूप को महसूस कर रही थी।

वे गांव के नौजवानों के बीच सबसे आगे थे। उन्होंने अपनें आसपास के युवाओं को इकट्ठा किया, राष्ट्र प्रेम और आज़ादी के विचार उनमें बोए। रामफल के नेतृत्व में नौजवानों ने स्थानीय थाने और सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराया, सरकारी रेल लाइनों को क्षतिग्रस्त किया, पोस्टों को आग के हवाले किया।

क्रांति अब पार्टीशन की तरह गांव-गांव में फूट पड़ी थी। अंग्रेजों के खिलाफ उनकी जंग, अब खुला ऐलान थी—“अब राज तुम्हारा नहीं, अब भारत जाग गया है!”.यह भावनाएं युवाओं में उवाल ले रहा था।

बाजपट्टी हत्याकांड: संघर्ष का महाकाव्य

24 अगस्त 1942। यह तारीख इतिहास के पन्नों में ‘बाजपट्टी हत्याकांड’ के रूप में दर्ज है—लेकिन सिर्फ दर्ज ही है, उसका दर्द और ज्ल्लाद भाव कहना मुश्किल है।

सीतामढ़ी के बाजपट्टी थाना परिसर के समक्ष, एक विशाल भीड़ इकट्ठा हुई। स्वतंत्रता सेनानी और ग्रामीणों का हुजूम, अंग्रेज अफसरों के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था। रामफल मंडल के नेतृत्व में, यह भीड़ केवल विद्रोह तक सीमित नहीं थी—बल्कि पूरे प्रशासन को खुली चुनौती थी।

भीड़ के सामने अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिनिधि—सीतामढ़ी अनुमंडल अधिकारी हरदीप नारायण सिंह, पुलिस इंस्पेक्टर राममूर्ति झा, हवलदार श्यामलाल सिंह, और दरबेशी सिंह—आ गए। दोनों ओर लाठियाँ-गोलियाँ चलीं।

रामफल मंडल, अपने हाथ में फरसा लिए, सबसे आगे था। अंग्रेज लाचार थे, लेकिन विद्रोही भूखे-प्यासे फिर भी निडर!

तभी उस युद्ध-से माहौल में, रामफल मंडल ने अपने साथियों के संग मिलकर ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों पर प्रहार किया। फरसों की धार गूंजी—एस.डी.ओ. हरदीप नारायण सिंह, पुलिस अफसरों की हत्या उसी भीड़ में हो गई।

थाना परिसर में तिरंगा फहराया गया। लेकिन यह जीत अस्थायी थी—क्योंकि अंग्रेज सरकार के इन अफसरों की हत्या ने पूरे जिले में हलचल मचा दी थी। एक तरफ गांव वालों में स्वाभिमान जागा, दूसरी ओर अंग्रेजों की बौखलाहट कई गुना बढ़ गई।

भूमिगत जीवन और गिरफ्तारी:

डर और जिजीविषा की बीच जंग,हत्या के बाद, पूरे क्षेत्र में कर्फ्यू सा माहौल था। आरोपी क्रांतिकारी, मुखबिरों की नज़र बचाते-बचाते इधर-उधर भटकने लगे। रामफल मंडल, भूमिगत हो गए। उन्हें छिपने के लिए अपने ही गांव की गलियों, खेतों, और कभी-कभी रेलवे स्टेशन की छांव का सहारा लेना पड़ता। कुछ समय के लिए वे नेपाल भी भागे, लेकिन साहस के साथ वे अपने साथियों का हौसला बढ़ाते रहे— “अभी कुछ नहीं बिगड़ा, हमें डरना नहीं है।”लेकिन अंग्रेजों ने जगह-जगह पकड़-धकड़ शुरू की। शरीफ ग्रामीण, मजदूर, किसान—हर कोई अंग्रेजों के शक के दायरे में था।

अंतत: एक मुखबिर की भनक से, 1 सितंबर 1942 को, रामफल मंडल को घेरकर गिरफ्तार कर लिया गया।

गिरफ्तारी के वक्त उनके चेहरे पर उदासी नहीं थी—बल्कि गर्व था कि वे अपने अंतिम कार्यभार की ओर बढ़ रहे हैं।

गांव में जैसे मातम सा पसर गया। माँ की आंखों में आंसू, पत्नी जगपतिया देवी अधीर—फिर भी, रामफल का भाव निर्विकार रहा!

गांव के बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं—सभी जेल के बाहर घंटों गुजारते, उनके लिए प्रार्थना करते।बहुत जल्द, उनकी सिंदूरी देह सीतामढ़ी जेल से भागलपुर केंद्रीय कारागार में स्थान्तरित कर दी गई।

प्रशासन जानता था—यह युवक जेल में भी किसी को क्रांतिकारी बना सकता है, इसलिए इसकी निगरानी बढ़ाई गई।

जेल के शिकंजे में: मौत से आँख मिलाने की आदत

सीतामढ़ी और भागलपुर दोनों जेलें रामफल मंडल के लिए यातना स्थली बन गईं। झूठे मुकदमे बने.

अधिकारियों-कर्मचारियों की हत्या, गैरकानूनी सभा, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान, और साजिश के आरोप उन पर जड़े गए। सामंतों, मुखबिरों के बयान, सरकारी गवाहियां—सभी क्रांतिकारी के खिलाफ खड़े कर दिए गए।मुकदमे की सुनवाई में माननीय जज सी.आर. सैनी ने जब पूछा

“क्या आपने हरदीप नारायण सिंह की हत्या की है?” सीधे-सीधे पूछा, तो शून्यता छा गयी। परंतु रामफल पीछे हटने वाला न था।

एक लंबा सन्नाटा तोड़ते हुए, निर्भीकता से बोले, “हाँ हुजूर, पहला फरसा हमने हीं मारा था!”
उनका यही उत्तर इतिहास में सच्चाई, ईमानदारी और मातृभूमि के प्रति समर्पण की मिसाल बन गया।

उनके साथी—कुछ पीछे हटे, कुछ ने हत्या से इंकार कर आत्मरक्षा की दरखास्त की। लेकिन रामफल मंडल का सिर ऊँचा था—सच बोलते हुए वे जानते थे, यही गवाही मृत्यु का आदेश होगी।

दूसरी तरफ, अंग्रेज हुकूमत इस मुकदमे में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। मंत्री से लेकर लॉर्ड तक, सभी ने आदेश दिया—“मिसाल बनानी है।”

मुकदमे में विशेष वकीलों का पैनल, सरकारी कर्मचारी, पुलिस अधिकारी, सभी एकजुट।
फिर भी, किसी भी वक्त रामफल मंडल ने डर नहीं दिखाया। उनकी आंखों में रत्ती भर पछतावा न था।

फांसी की सजा: अंतिम इच्छा और अंतिम विदाई

कई महीनों तक, मुकदमा चलता रहा। अदालत में जाने कितने बयान हुए, लेकिन 1943 में कोर्ट ने फैसला सुनाया—मृत्यु दंड!

फैसला सुनकर कोई और होता, तो घुटनों के बल गिर पड़ता। परंतु रामफल मंडल की आंखों में चमक थी—“देश से बड़ी कोई चीज़ नहीं।

”जब जेलर ने अंतिम इच्छा पूछी तो उनका जवाब था—“अंग्रेज इस धरती को हमेशा के लिए छोड़ दें, हमारी मातृभूमि फिर कभी गुलाम न हो।

”23 अगस्त 1943 की सबुह, भागलपुर सेंट्रल जेल के गलियारे में असामान्य हलचल थी। एक ओर पुरोहित मंत्र पढ़ रहा था, दूसरी ओर जेल कर्मी फांसी की तैयारी कर रहे थे।

रामफल मंडल, मात्र 19 वर्ष, 17 दिन की आयु में, अपने गांव, मां, पत्नी, और अजन्मे भविष्य को सलाम करते हुए फांसी के फंदे को झूल गए। लोग कहते हैं कि उनकी मुस्कान आखिरी वक्त तक कायम रही।

परिवार का दर्द और समाज की चुप्पी

जेल की दीवारों से पार, जब यह खबर माताजी गरबी देवी तक पहुंची, तो गाँव की पगडंडियां आंसुओं से भीग गईं।

जगपतिया देवी, जो अभी किशोरी थीं, एक पल में विधवा हो गईं—अधूरा सुहाग, अधूरी मुस्कान।आजादी के बाद उन्हें सरकारी सहायता कभी नहीं मिली—न सम्मान, न जीविका। बाकी परिवार, गांव की दरिद्रता में घिसटता रहा।

आज—80 वर्ष बाद भी—रामफल मंडल के परिजन दो वक्त की रोटी, ढंग की छत, या सरकारी मदद के लिए दर-ब-दर ठोकरें खाते हैं।

यह सामाजिक-राजनीतिक विडंबना है कि जिस परिवार ने देश को बेटा दिया, उसी को देश ने भूल-सा दिया!

ऐतिहासिक विस्मृति: गुमनामी के अदृश्य अंधेरे

आज जब आप स्कूलों की किताबें उठाते हैं, भारत माता के वीर सपूतों की सूची निकालते हैं, तो उसमें रामफल मंडल का नाम शायद ही कहीं मिलता है।

बिहार के अंग्रेजी विरोधी tआंदोलन में जो प्रमुखता उन्हें मिलनी चाहिए थी, वह नदारद है। इतिहासकार अंग्रेज प्रशासकों, बड़े शहरों के क्रांति कारियों की अधिक चर्चा करते हैं, लेकिन मधुरापुर-सीतामढ़ी के जैसे गुमनाम वीर तो ‘फुटनोट’ में भी स्थान नहीं पा सके।

कारण स्पष्ट है—राजनीति, समाज, और इतिहास लेखन में जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों का वर्चस्व। पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्ग, जिनसे रामफल मंडल आते थे, उनके संघर्ष को हमेशा वर्णन का हाशिया ही मिला।

बहुत बार तो ऐसे बलिदानियों की गाथाएं, स्थानीय पंचायत की बैठकों, लोकगीतों-अनुष्ठानों में ही सीमित रह गयीं।

बीजेपी नेता शिवराज सिंह चौहान ने 2024 में ‘शहीद का दर्जा’ देने की घोषणा की—इसके जरिए पिछड़ों में सामाजिक पहचान दिलाने का राजनीतिक प्रयास भले हुआ, लेकिन सवाल आज भी मौजूदा है—इतने दशकों तक चुप्पी क्यों?

शहीद का दर्जा क्यों नहीं मिला:- गहन विश्लेषन

आज़ाद भारत में ‘शहीद’ की परिभाषा ही अस्पष्ट रही है। भगत सिंह या खुदीराम बोस के मुकाबले क्षेत्रीय या वर्गीय योद्धाओं को ‘डॉक्युमेंटेशन’ या सरकारी स्तर पर कम महत्व मिला।

रामफल मंडल—जिन्होंने खादी नहीं पहनी, उनके पास राजनेताओं की चिट्ठियां नहीं थीं, संपन्न या सुशिक्षित तबके से न थे—उन्हें कब, कैसे, किसने ‘शहीद’ लिखना है, यह तय करना आज तक आसान नहीं हुआ।

अक्सर ऐसे गुमनाम वीर जातीय पहचान और स्थानीय संघर्षों में सिमट गए, न किताब, न स्मारक, न कोई सरकारी हुमानिटी।

विरासत: सचाई, साहस और प्रेरणा

लेकिन इतिहास सिर्फ दस्तावेज़ों से नहीं, पीढ़ियों के कानों में सुनाई पड़ने वाली सच्ची कहानियों से भी बनता है।

रामफल मंडल की गाथा आज भी मधुरापुर, बाजपट्टी, सीतामढ़ी के गांवों में बच्चों से लेकर जवानों, किसानों और स्त्रियों तक की जुबान पर है—“हमें डरना नहीं है, लड़ना है। हमारे रामफल भैया ने भी फाँसी को चूमा, नया भारत माँगा!

”उनका बलिदान, सभी पिछड़े, मजदूर, शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा है—‘कोई भी परिस्थिति हो, अन्याय से बड़ा सच कभी नहीं हो सकता’।

देश की आज़ादी सिर्फ किताबों के चेहरे, नेताओं के भाषणों या मुख्यधारा के मीडिया की कृपा से नहीं आई—अनगिनत गुमनाम बलिदान ऐसे रहे, जो लाखों को झुका सकते थे, लेकिन देश के लिए सिर कटाने में पीछे नहीं हटे।

वर्तमान सन्दर्भ: स्मरण और समीक्षाएं

आजादी के 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। देश नई ऊंचाई छू रहा है—डिजिटल इंडिया, चंद्रयान, मेक इन इंडिया, साम्प्रदायिकता, चुनावी राजनीति—न जाने कितनी लहरें उठीं और बुझ गईं।

लेकिन मधुरापुर-सीतामढ़ी जैसे गांवों में एक वृद्ध मां, एक अधूरी विधवा पत्नी की उम्मीदें हाथ में चिट्ठी लिए सरकारी दफ्तरों में घूमती रही है—आज भी उनके परिवार के लोग ‘कब मिलेगा शहीद का दर्जा, कब बनेगा स्मारक’? इस सवाल को लेकर सरकार और प्रशासन के दफ्तर तक दौड़ लगा रहे हैं.

सियासत, नारेबाज़ी, सोशल मीडिया ट्रेंड्स आते-जाते रहते हैं—लेकिन असली जरूरत है कि हम अपने अतीत की ऐसी विभूतियों को तहेदिल से अपनाएं, उनकी स्मृति को राष्ट्रगान का हिस्सा बनाएं। ऐसे बलिदान बेमोल नहीं—बल्कि आने वाली पीढ़ियों का मापदंड, साहस और उसी आत्मगौरव के प्रतीक हैं।

नए भारत के लिए नया संकल्प

रामफल मंडल की कहानी अकेले उनके बलिदान की नहीं, बल्कि भारत की उस आत्मा की है, जिसके बलिदानों की कोठरी आज भी धूल से ढंकी है।

उनका जीवन बताता है—विशेषण, पद, संसद, पुरस्कार या प्रसिद्धि से बड़ा बलिदान यह है—देश के लिए जिंदा रहना, और मर जाना।

आज की युवा पीढ़ी—चाहे गांव की हो या शहर की—यदि इन गुमनाम क्रांतिकारियों को पढ़े, समझे, और आदर्श माने, तो देश अपने सही मायनों में स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और समता-युक्त बन सकता है।

रामफल मंडल को हृदय से नमन। उनका साहस, सत्य और बलिदान अपरिमेय है। नई सुबह तब ही आएगी जब हम भूत, वर्तमान और भविष्य की इन सच्ची कहानियों को सुनकर स्वयं में नई क्रांति की शुरुआत करेंगे।

रामफल मंडल—तुम्हारा नाम मिटाया नहीं जा सकता। हर बार इतिहास की नई किताब लिखी जाएगी, हर बार धान के खेतों में नया बच्चा जन्म लेगा, हर बार मां लोरी सुनाएगी–
–हर बार तुम जिंदा रहोगे, भारत माता के बेटे की तरह…!

राजनेताओं के आंसू और शहीदों के परिवार का इंतजार

बिहार के राजनेताओं और मंत्रियों का शहीदों के घर जाना और आंसू बहाना एक भावनात्मक क्षण होता है, लेकिन अक्सर यह सवाल उठता है कि इन भावनाओं का क्या होता है जब कैमरे बंद हो जाते हैं? क्या ये आंसू सिर्फ चुनावी वादे और राजनीतिक लाभ तक ही सीमित होते हैं?

जैसा कि परिवहन मंत्री शीला मंडल की शहीद रामफल मंडल के परिजनों से मुलाकात के दौरान देखा गया, नेताओं का भावुक होना स्वाभाविक है। उन्होंने शहीद के परिवार की गरीबी और दयनीय स्थिति देखकर दुख व्यक्त किया। यह देखकर उम्मीद जगती है कि शायद अब इन परिवारों की स्थिति सुधरेगी, उन्हें वह सम्मान मिलेगा जिसके वे हकदार हैं। लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता।

नेताओं द्वारा किए गए वादे और दिए गए आश्वासन, शहीदों के परिवार को कुछ समय के लिए राहत जरूर देते हैं, लेकिन वे जल्द ही भुला दिए जाते हैं। शहीद रामफल मंडल जैसे गुमनाम नायकों के परिवार आज भी उसी गरीबी और उपेक्षा में जी रहे हैं, जिसमें वे दशकों से हैं। डाक टिकट जारी करने की बात हो या पाठ्यपुस्तकों में जीवनी शामिल करने की, ये वादे अक्सर सिर्फ वादे बनकर रह जाते हैं।

यह विडंबना है कि जिन शहीदों ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, उनके परिवार आज भी सम्मान और मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। यह सिर्फ रामफल मंडल के परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि यह उन सभी गुमनाम शहीदों के परिवारों की कहानी है, जिनकी शहादत को इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली।

शहीदों की कोई जाति नहीं होती, वे पूरे देश के होते हैं। लेकिन जब मंत्री शीला मंडल जैसे नेता वीर कुंवर सिंह का उदाहरण देते हुए यह सवाल उठाते हैं कि कमजोर वर्ग के शहीदों को इतिहास में जगह क्यों नहीं मिली, तो यह एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म देता है। उनका इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था, बल्कि वह यह बताना चाहती थीं कि शहीदों के साथ भेदभाव हुआ है।

यह जरूरी है कि इन शहीदों को उनका उचित सम्मान मिले। यह न सिर्फ उनके परिवारों के लिए न्याय होगा, बल्कि यह आने वाली पीढ़ी को भी यह संदेश देगा कि देश के लिए दिए गए हर बलिदान का सम्मान किया जाता है, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग का हो। नेताओं को सिर्फ आंसू बहाने और वादे करने की बजाय, इन वादों को पूरा करना चाहिए और शहीदों के परिवारों की स्थिति में सुधार लाने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

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