क्यों गर्व होना चाहिए फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ पर धानुक समाज को
हिंदी साहित्य के इतिहास में फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ एक ऐसे साहित्यकार के रूप में याद किए जाते हैं, जिन्होंने उपन्यास और कहानी की दुनिया को महानगर और कुलीन जीवन की चौहद्दी से निकालकर गाँव की मिट्टी, खेत-खलिहान और लोकजीवन से जोड़ा। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि उन्होंने ग्रामीण जीवन का यथार्थवादी और सजीव चित्र खींचा, जहां जाति, वर्ग और सामाजिक विषमता से जूझते पात्र केवल पृष्ठभूमि का हिस्सा नहीं बने, बल्कि कथा के केंद्र में स्थापित हुए।
इसी संदर्भ में धानुक समाज उनके साहित्यिक संसार का एक प्रमुख अंग बनकर उभरता है। धानुक जाति, जिसे लंबे समय तक भारतीय समाज में तिरस्कार और उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा, उसके लिए फणीश्वर नाथ रेणु केवल एक साहित्यकार नहीं बल्कि आत्मगौरव और सम्मान का प्रतीक बने। यह लेख इस तथ्य की पड़ताल करता है कि क्यों धानुक समाज को रेणु जैसे व्यक्तित्व पर ना केवल गर्व करना चाहिए बल्कि उनसे प्रेरणा लेकर अपने भविष्य की राह भी तय करनी चाहिए।
*धानुक समाज की सामाजिक पृष्ठभूमि*
भारत की जातिगत संरचना में धानुक समाज को सदैव पिछड़े और उपेक्षित वर्गों में गिना गया। यह समाज प्रायः कृषि मजदूरी, मछली पकड़ने, खेती-किसानी में सहायक भूमिका निभाने और संवादिया जैसे कार्यों के लिए पहचाना जाता था।
संवादिया का कार्य उच्च जातियों के जमींदारों का संदेश गाँव-गाँव पहुँचाना होता था, जिसे सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था, लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से यह कार्य उस समय की ग्रामीण सामंती व्यवस्थाओं में विश्वसनीयता और निष्ठा का प्रतीक था।
शिक्षा, संपत्ति और अवसरों से वंचित होने के कारण इस समाज को अक्सर तिरस्कार और भेदभाव झेलना पड़ा। किंतु धानुक समाज की संस्कृति में श्रमशीलता, वफादारी और सामुदायिकता जैसी विशेषताएँ पीढ़ियों से मौजूद रही है। साहित्यिक दृष्टि से यह समाज लगभग अदृश्य था। वहीं, रेणु जैसे लेखक ने इन्हें केवल कथा का हाशियागत हिस्सा न बनाकर, साहित्य का जीवंत और आत्मीय पात्र बनाया।
रेणु का जीवन और जातीय अस्मिता
फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 1921 में अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में हुआ। उनका जीवन कोई विशेष जातीय या सामाजिक विशेषाधिकार से युक्त नहीं था। वे धानुक जाति से थे और यही बात उन्हें विशेष बनाती है। एक ऐसे समय में जब जातीय पहचान सामाजिक अवसरों और सम्मान को सीमित कर देती थी, रेणु ने अपनी इस पृष्ठभूमि को कभी छुपाया नहीं।उन्होंने अपने साहित्य और लेखन के माध्यम से यह दिखाया कि जाति की सीमाएँ प्रतिभा और संवेदना के सामने छोटी पड़ जाती हैं।
इस दृष्टि से रेणु धानुक समाज के लिए आत्मगौरव का सबसे बड़ा कारण हैं। उन्होंने यह संदेश दिया कि किसी भी जाति का व्यक्ति अगर सृजन शीलता और आत्मविश्वास के साथ जीवन जिये तो वह पूरी जाति के लिए गौरव बन सकता है।
‘मैला आँचल’ और धानुक समाज
रेणु का महान उपन्यास मैला आँचल हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यास परंपरा की नींव रखता है। इसमें ग्रामीण जीवन के असंख्य रंग और स्वर दिखाई देते हैं। सबसे उल्लेखनीय यह है कि इसमें हाशिए के समाज की आवाज भी सुनाई देती है।
परमेश्वर मंडल, जिसे कहानी में ‘परमेश्वर धानुक’ कहा गया है, इस उपन्यास का ऐसा पात्र है जो साधारण होते हुए भी असाधारण गहराई लिए हुए है। वह केवल सहायक या पृष्ठभूमि का चरित्र नहीं, बल्कि अपने स्वभाव, मेहनत और ईमानदारी से पूरी जाति की गरिमा का प्रतिनिधित्व करता है। रेणु ने इस पात्र के माध्यम से यह दिखाया कि धानुक समाज केवल मजदूरी करने वाला नहीं, बल्कि अपनी सच्चाई और श्रमशीलता से समाज का आधार है।
इस पात्र के जरिए धानुक समाज का सकारात्मक स्वरूप उभरता है। यह उस धारणा को बदलने का प्रयास है जहां पिछड़ी जातियों के पात्र को हमेशा हास्य, तिरस्कार या उपेक्षा के भाव से चित्रित किया जाता था।
संवादिया और हरगोबिन की छवि
रेणु की प्रसिद्ध कहानी संवादिया भी धानुक समाज की वास्तविकता को उजागर करती है। इस कहानी का केन्द्रीय पात्र हरगोबिन, जाति से धानुक है। उसका काम गाँव के बड़े घरानों के लिए संदेश ले जाना है, किंतु इस भूमिका में उसका चरित्र केवल सेवक का नहीं रह जाता। वह वफादारी, जिम्मेदारी और सादगी से भरा हुआ इंसान है।
हरगोबिन का पात्र बताता है कि साधारण भूमिका निभाने वाला व्यक्ति भी कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। संवादिया केवल संदेशवाहक नहीं, बल्कि गाँव-जवार की सामाजिक दुनिया का भरोसेमंद सूत्रधार है।
हरगोबिन धानुक समाज की उन विशेषताओं को दिखाता है जो श्रम और निष्ठा के बल पर समुदाय में सम्मान और पहचान दिला सकती हैं।
आंचलिकता और लोकजीवन का चित्रण
रेणु ने अपने साहित्य में बिहार के ग्रामीण जीवन, लोकगीतों, परंपराओं और बोलियों को एक सहज और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया। उनकी भाषा में मैथिली, भोजपुरी और स्थानीय बोलियों का मिश्रण दिखाई देता है, जिससे पात्र सीधे सामाजिक और सांस्कृतिक जमीन पर खड़े प्रतीत होते हैं।इस आंचलिकता की एक विशेषता यह है कि यहाँ हर जाति और वर्ग की उपस्थिति है। उच्च जाति, पिछड़ी जाति, महिलाएँ, किसान-मजदूर—सभी के अनुभव कथा का हिस्सा बनते हैं। धानुक समाज इन कथाओं में केवल शोषित या पीड़ित की आवश्यकता भर नहीं है, बल्कि जीवन की धड़कनों और संवेदनाओं का अभिन्न हिस्सा है।
यह साहित्यिक दृष्टि समाज को देखने का नया नजरिया देती है।
धानुक समाज के सकारात्मक गुण
रेणु के साहित्य से धानुक समाज की जो छवि उभरती है वह केवल उपेक्षा या संघर्ष की नहीं, बल्कि मेहनत, ईमानदारी और संवेदनाओं की भी है। ये पात्र अपनी सादगी और निष्ठा से पाठक को प्रभावित करते हैं। उनका चरित्र यह साबित करता है कि किसी भी समुदाय का मूल्य उसकी मेहनतकशी, आत्मीयता और मानवता से आँका जाना चाहिए, न कि उसकी जातिगत पहचान से।
यह भी उल्लेखनीय है कि रेणु ने धानुक समाज को नकारात्मक ढंग से चित्रित नहीं किया, बल्कि उनकी संस्कृति और व्यक्तित्व के उन पहलुओं को रेखांकित किया जिनसे वे समाज की आत्मा का हिस्सा बनते हैं। उनकी कहानियों में धानुक पात्र स्वच्छ चरित्र वाले, बफादार और जीवन से भरपूर दिखाई देते हैं।
विश्वस्तरीय सम्मान और धानुक गौरव
फणीश्वर नाथ रेणु को उनके साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान प्रदान किया। उनकी कृतियाँ केवल भारत नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी चर्चित हुईं। यह गौरव केवल साहित्यिक उपलब्धि नहीं बल्कि जातीय अस्मिता का भी प्रतीक है।धानुक समाज के लिए यह आत्मगौरव का विषय है कि जब इस समाज की बड़ी आबादी सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन से जूझ रही थी, उसी दौर में एक ऐसा साहित्यकार उभरा जो न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हुआ। यह तथ्य बताता है कि समाज की सीमाएँ प्रतिभा और सृजनशीलता को बाधित नहीं कर सकतीं।रेणु से प्रेरणा और धानुक समाज का भविष्यआज के दौर में जब धानुक समाज शिक्षा और सामाजिक पहचान की नई राह पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, रेणु का जीवन और साहित्य उसके लिए सबसे बड़ा प्रेरणास्रोत है।
रेणु यह सिखाते हैं कि अपनी पहचान से शर्मिंदा होने की बजाय उस पर गर्व करना ही सच्ची मुक्ति है। शिक्षा और साहित्य वह औजार हैं जिनसे वंचित समाज अपना भविष्य बदल सकता है।रेणु के पात्र बताते हैं कि वास्तविक सम्मान शक्ति या प्रभुत्व में नहीं, बल्कि श्रम, सादगी और ईमानदारी में है। इन्हीं मूल्यों को अपनाकर धानुक समाज अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भी प्रगति की राह तय कर सकता है।
औऱ अंत में….?
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ केवल एक साहित्यकार नहीं, बल्कि धानुक समाज के गौरव और आत्मगौरव के प्रतीक हैं। उन्होंने न केवल धानुक समाज के पात्रों को साहित्य में स्थान दिया, बल्कि उन्हें वह गरिमा भी दी जिसकी उन्हें सदियों से प्रतीक्षा थी।उनका साहित्य बताता है कि हाशिये पर रहने वाले समाज भी जीवन का केंद्र हैं, और उनकी अस्मिता को कोई दबा नहीं सकता। धानुक समाज को उन पर गर्व करना चाहिए क्योंकि वे इस जाति की संघर्षशीलता, श्रमशीलता और ईमानदारी के प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि उससे कहीं अलग एक चेतना और प्रेरणा के प्रकाशपुंज भी हैं।