रचानकार:- डॉ. उर्मिला सिन्हा, (राँची, झारखंड)
आज से पचपन साल पहले जब मेरा विवाह दक्षिण बिहार के दाऊदनगर स्थित संसा गाँव में हुआ, तो वहाँ के जीऊतिया उत्सव को देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मेरा मायका उत्तर बिहार में गंगा के पार था, जहाँ यह व्रत आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता था। सप्तमी को नहाय-खाय, अष्टमी को निर्जला उपवास और नवमी को विधिवत पारण का रिवाज था, लेकिन वहाँ नाटक या लोक स्वांग का कोई चलन नहीं था। इसलिए, दाऊदनगर में जीऊतिया के दौरान होने वाले रंगारंग कार्यक्रम देखकर मुझे खुशी के साथ-साथ हैरानी भी हुई।
दाऊदनगर बिहार के औरंगाबाद जिले का एक प्रमुख और ऐतिहासिक शहर है। यहाँ दाऊद खाँ का भव्य प्राचीन किला और एक सूर्य मंदिर भी है। शहर के बीचों-बीच बहने वाली सोन नदी से निकली नहर इसकी शान है, जिसे अंग्रेजों ने नील की खेती के लिए बनवाया था। आज यह नहर हजारों एकड़ ज़मीन को सींचकर इस क्षेत्र को “धान का कटोरा” बनाती है। हमारा गाँव संसा भी इसी नहर के किनारे बसा हुआ है।
कहा जाता है कि पूरे भारत में दाऊदनगर ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ जीऊतिया को इतने बड़े पैमाने पर एक लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है। यहाँ यह व्रत नौ दिनों तक चलता है। शहर के चार प्रमुख चौकों को सजाया जाता है, जहाँ जीमूतवाहन का प्रतीक ओखली और पीतल का डमरू रखा जाता है।
महिलाएँ सामूहिक रूप से नृत्य-संगीत के साथ उनकी पूजा करती हैं। यहाँ का एक लोकगीत बहुत प्रसिद्ध है:
कहंवा के दीवाली कहंवा के दशहरा कइले सारा नाम हई गे साजन
कहंवा के जीऊतीया कइले सारा नाम हई गे साजन…
पटना के दीवाली कलकत्ता के दशहरा सारा नाम कइले हई गे साजन,
दाऊदनगर के जिऊतीया सारा नाम कइले हई गे साजन।
स्थानीय निवासियों के अनुसार, इस महोत्सव की शुरुआत संवत् 1917 (1860 ई.) में हुई थी, जब प्लेग महामारी ने गाँव के गाँव उजाड़ दिए थे। उस समय इस क्षेत्र में प्लेग की देवी, जिसे बेबा देवी कहा जाता था, की पूजा होने लगी थी। प्लेग से मुक्ति पाने के लिए महाराष्ट्र से ओझा-गुणी बुलाए गए थे और महाराष्ट्र की लावणी से मिलता-जुलता नृत्य-संगीत यहाँ के जीऊतिया का मुख्य आकर्षण बन गया।
यह क्षेत्र कसेरा जाति का गढ़ माना जाता है, जो धनी और समृद्ध थे। कसेरा टोली चौक पर जीमूतवाहन गोसाईं का मंदिर है। जीऊतिया महोत्सव की शुरुआत करने का श्रेय पाँच लोगों को दिया जाता है:हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगल और रंगलाल।
इस दौरान स्थानीय कलाकार पौराणिक, राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर नाटक और स्वांग (जिसे ‘नकल’ भी कहते हैं) प्रस्तुत करते हैं। ये कलाकार अपने अभिनय से सरहद पर तैनात सैनिकों के पराक्रम, नक्सली प्रभावित क्षेत्रों की स्थिति, और राजनेताओं के भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों को रोचक ढंग से मंच पर उतारते हैं। दहेज प्रथा और उस समय की सामाजिक घटनाओं का चित्रण भी इन नाटकों का हिस्सा होता है।
जीऊतिया व्रत में माताएँ अपने बच्चों की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए राजा जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और चौबीस घंटे का निर्जला उपवास रखती हैं। नहाय-खाय और पारण का विशेष महत्व है, जिसमें नोनी का साग, सतपुतिया, कंदा की सब्जी, मालपुआ और पाँच प्रकार के बचका जैसे व्यंजन बनाए जाते हैं।
व्रत के दौरान, व्रती महिलाएँ सामूहिक रूप से चिल्हो-सियारों और जीमूतवाहन गोसाईं की कथा सुनती हैं। वे गले में लाल-पीले धागे या सोने-चांदी से बना जीऊतिया पहनती हैं और पूजा में खीरा अवश्य रखती हैं। पारण के दिन खीरे का बीज, चने का दाना और नोनी का साग निगलना शुभ माना जाता है।
दाऊदनगर के लोगों का मानना है कि जब कोई व्यक्ति बड़े संकट से बच निकलता है, तो लोग कहते हैं, “इसकी माँ ने ज़रूर ‘खर जीऊतिया’ किया होगा, इसीलिए यह बच गया।” ‘खर जीऊतिया’ का मतलब है, व्रत में एक तिनका भी मुँह में न डालना।
यह आलेख मेरे व्यक्तिगत अनुभव और दाऊदनगर के लोगों से हुई बातचीत पर आधारित है। यह व्रत सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोक संस्कृति का एक जीवंत रूप है, जो इस क्षेत्र की पहचान बन चुका है।
सभी माताओं के हृदय में हर्षोल्लास रहे, और सभी के संतान दीर्घजीवी और खुशहाल रहें।