भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तरी बिहार की भागीदारी, शौर्य और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का वह अध्याय है, जो प्रेरणा, साहस और जनसामान्य की प्रतिबद्धता का जीवंत प्रमाण प्रस्तुत करता है। जिस प्रकार यहाँ के विद्यार्थियों ने गोली लगने पर भी तिरंगा हाथ में पकड़े रखा, जिस तरह ग्रामीणों ने सरकारी दमन का निर्भीक प्रतिकार किया, जिस तरह सीतामढ़ी, दरभंगा, पूर्णिया, कटिहार, बक्सर के छोटे-छोटे गाँवों से लोग संगठित हुए, वह संघर्ष आज भी देश को साहस, आदर्श और अपनी पहचान की शिक्षा देता है। उत्तर बिहार के आंदोलनकारियों ने न केवल अंग्रेजी शासन का ध्वंस किया, बल्कि आधुनिक संवैधानिक राष्ट्र की नींव भी मजबूत की।
विनोद आनंद
आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का अंतिम और शायद सबसे तीक्ष्ण जनआंदोलन था, जिसकी आधारशिला तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में ही रखी गई थी। यह आंदोलन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तब सामने आया जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं और जनता की राय को नजरअंदाज करके भारत को युद्ध के मैदान में धकेल दिया।
इसी समय क्रिप्स मिशन की विफलता, जिनका उद्देश्य भारत को कुछ संवैधानिक सुधार की उम्मीद देना था, जनता में व्यापक असंतोष का कारण बनी। इस पूरी पृष्ठभूमि ने जनमानस को आंदोलित कर दिया था और एक बड़े स्वतंत्रता आंदोलन की नींव तैयार कर दी थी।
अगस्त 1942 में जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने मुंबई में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया और गांधी ने ‘करो या मरो’ का आह्वान दिया तो यह स्पष्ट हो गया कि देश के आमजन अब अंतिम निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार हैं। बिहार, विशेष रूप से उत्तरी बिहार, इस आंदोलन के विस्तार और प्रबल प्रतिरोध का एक उल्लेखनीय केन्द्र बन गया। यहाँ की जनता, किसान, छात्र-छात्राएं, महिलाएं और स्थानीय नेता सब एकजुट होकर स्वतंत्रता के लिए शीर्ष नेतृत्व के बिना अपनी भूमिका निभाने लगे।
पृष्ठभूमि में उल्लेखनीय यह भी है कि बिहार की राजनीतिक चेतना किसी अन्य प्रांत से कम नहीं थी; यहाँ कांग्रेस और समाजवादी आंदोलनों की गहरी जड़ें थीं, राजेंद्र प्रसाद, श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण जैसे नेता पहले से ही आमजन के बीच लोकप्रिय थे। परंतु ब्रिटिश शासन की ओर से जबरदस्त दमन, अध्यादेश शासन लागू करना, नेताओं को जेल में डालना, फिर भी बिहार में जनसामान्य का उत्साह कम नहीं हुआ।
समूचे प्रदेश में सरकारी संस्थानों का बहिष्कार, हड़तालें, सभाओं का आयोजन, बड़े पैमाने पर पुलिस प्रशासन व यातायात सेवाओं का विरोध और हिंसक प्रतिरोध भी देखे गए।
यह पृष्ठभूमि बताती है कि आंदोलन महज एक राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि हर नागरिक के जीवन और स्वाभिमान से जुड़े प्रश्न की परिणति थी। उत्तरी बिहार के गाँव-नगरों ने अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक जड़ों से जुड़कर राष्ट्रव्यापी आंदोलन को विशिष्ट regional vigor दिया।
यहाँ की मिट्टी की सघनता, सामुदायिक एकता और किसी भी अन्याय के खिलाफ संगठित प्रतिरोध की संस्कृति ने आंदोलन को अभूतपूर्व आयाम दिया। पूरी पृष्ठभूमि में गांधीवादी अहिंसा के सिद्धांतों के साथ-साथ स्थान-स्थान पर स्वतःस्फूर्त हिंसक प्रतिरोध और ब्रिटिश दमन के विरुद्ध क्षेत्रीय उपक्रम भी आंदोलन के स्वरूप को गहराई देते हैं।
अतः भारत छोड़ो आंदोलन की यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समझना उत्तरी बिहार की भूमिका के विश्लेषण के लिए नितांत आवश्यक है, क्योंकि इसी जनआक्रोश, राजनीतिक परिपक्वता और प्रशासनिक प्रतिबद्धता ने आंदोलन को अपने चरम पर पहुंचाया।
उत्तरी बिहार में आंदोलन का प्रसार:नेतृत्व, रणनीति और जन भागीदारी
उत्तर बिहार स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा ही अग्रणी रहा है, परंतु 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इसकी सीमा पार कर देने वाली क्रांतिकारी भागीदारी नई ऊंचाइयों तक पहुंच गई। आंदोलन की प्रारंभिक लहर ने क्षेत्र के शहरी एवं ग्रामीण हिस्सों को समान रूप से झकझोर दिया। जब शीर्ष नेता गिरफ्तार हुए, तब आमजन, विशेषकर युवा, छात्र, शिक्षक, ग्रामीण किसान, छोटे व्यापारी और महिलाएं स्वतः नेतृत्व की भूमिका में आ गए। पटना का सचिवालय गोलीकांड समूचे प्रदेश के आंदोलन को प्रबल करने में मील का पत्थर साबित हुआ।
11 अगस्त को पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराने गए सात छात्रों को गोलियों से भून दिया गया—यह कठोर घटना उत्तरी बिहार के हृदय में क्रांति की ज्वाला बन गई। इन छात्रों के शहीद होने का संदेश रातों-रात गाँव-गाँव पहुंच गया और प्रत्येक नगर, कस्बे, पंचायत में आंदोलन को बल मिला।
सीतामढ़ी, दरभंगा, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, कटिहार, सिवान, बक्सर, चंपारण जैसे उत्तरी बिहार के जिलों में आंदोलन ने तीव्र, उत्साही और व्यापक स्वरूप ग्रहण किया। यहाँ के युवाओं ने सरकारी तंत्र के विरुद्ध आवाज उठाई—रेलगाड़ियों की पटरी खोद दी गयी, तार-संचार सेवा ठप कर दी गई, सरकारी इमारतों पर हमला हुआ, पुलिस चौकियों में आग लगाई गई और अंग्रेज अधिकारियों पर लोक विद्रोह की ज्वाला फूटी।
सीतामढ़ी में तो ब्रिटिश दमन के विरुद्ध ऐसी तीव्र घातक प्रतिरोध की मिसाल बनी कि आंदोलनकारियों ने ब्रिटिश अधिकारियों को घेर कर मार डाला। इसके बाद भी, प्रशासन की भारी दमनात्मक कार्रवाईयों के बावजूद, यहाँ शहीदों के नाम पर जुलूस, धरना, मौन-व्रत, सामूहिक त्याग एवं बलिदान के सहारे आंदोलन को नया संबल मिला। खास बात यह रही कि महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थीं; कई जगहों पर तो महिलाओं ने जुलूस की अगुवाई भी की।
किसानों का सहभाग, भू-हदर्द, मजदूर आंदोलन और शिक्षकों का बहिष्कार—इस पूरे प्रसार से साफ पता चलता है कि उत्तरी बिहार में आंदोलन केवल कुछ नेताओं या पढ़े-लिखे वर्ग तक नहीं था, गांव-गांव की आमजनता इसकी अगुआ बन गई थी।
आंदोलन बहुत बार हिंसक भी हो गया, परंतु साथ ही गांधीवादी रणनीति का पालन भी हुआ: जैसे बहिष्कार, असहयोग, सत्याग्रह, सभाओं का आयोजन। इतना ही नहीं, उत्तरी बिहार के आंदोलन का एक विशिष्ट स्वरूप था—छोटे क्षेत्रों के भीतर आंदोलन की रणनीति, स्थानीय नेतृत्व के नवाचार जैसे भूमिगत संगठन, गुप्त पत्र-पत्रिकाएं, सामुदायिक आर्थिक बहिष्कार, पुलिस-प्रशासन के भीतर विरोधी नेटवर्क। हर गाँव में जगह-जगह छोटे समूह बनाकर आंदोलन को निरंतरता दी गई।
आंदोलन के विस्तार ने प्रदेश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। यहाँ की त्वरित, सामूहिक और परस्पर सहयोग की प्रवृत्ति ने आंदोलन को सरकार के भीतरी तंत्र तक पहुंचाया—कई पुलिस, सैनिक और सरकारी कर्मचारी चुपचाप आंदोलनकारियों के पक्ष में खड़े हो गए। समूचे उत्तर बिहार में आंदोलन का यह प्रसार प्रादेशिक चेतना, नेतृत्व क्षमता और देशभक्ति की मिसाल बन गया, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष में उत्तरी बिहार की आभा को स्थायी रूप से स्थापित कर दिया। आंदोलन के दौरान इन सबके सम्मिलन से उत्तर बिहार राष्ट्रीय विमर्श का एक अपूर्व जन-शक्ति स्थल बन गया; और यही उसकी विशेषता रही।
प्रमुख घटनाएं, शहीद और नेताओं की भूमिका
भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तरी बिहार की गाथा उसकी ऐतिहासिक घटनाओं, वीरता और बलिदान के नायकों की वजह से और भी गौरवमय बन जाती है। 11 अगस्त 1942 के पटना सचिवालय गोलीकांड से इसकी शुरुआत मान लें तो सात छात्र-शहीदों का नाम अब इतिहास में अमर है: उमाकांत प्रसाद सिंह, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जगतपति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेंद्र सिंह और राम गोविंद सिंह। इन शहीदों के खून ने न सिर्फ पटना को आंदोलन का केंद्र बनाया, बल्कि सीतामढ़ी, दरभंगा, पूर्णिया, सिवान, बक्सर, मुजफ्फरपुर आदि जिलों में प्रतिकार और प्रतिशोध की लहर पैदा कर दी।
सीतामढ़ी की घटना तो विशेषत: उल्लेखनीय है, जहाँ 24 अगस्त को स्थानीय नेतृत्वकर्ता रामफल मंडल ने सिविल एस.डी.ओ. हरदीप नारायण सिंह, पुलिस इंस्पेक्टर राममूर्ति झा, हवलदार श्यामलाल सिंह एवं दरवेश सिंह को अपनी जीप समेत घेर कर मौत के घाट उतार दिया। वह घटना उत्तर बिहार के ग्रामीण प्रतिरोध और जुझारू नेतृत्व की गाथा का प्रतीक बन गई। रामफल मंडल अदालत में खड़े होकर निर्भीकता के साथ हत्या का दोष स्वीकार करते हैं, जिसे लेकर उन्हें भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी दी जाती है। आज तक उन्हें ‘बिहार का पहला शहीद’ कहा जाता है। इसी तरह भदई कबाड़ी, सहदेव साह, महावीर गोप, राम बुझावन ठाकुर, मौजे झा, सुखराम मेहरा, बलदेव सुरी, जयमंगल सिंह आदि ने आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दी।
पूर्णिया के धमदाहा थाने पर तिरंगा फहराने की घटना भी इस श्रेणी में आती है, जहाँ 15 आंदोलनकारी शहीद हो गए। इनमें जोगेंद्र नारायण सिंह, परमेश्वर दास, राम निवास पांडेय, कुसुमलाल आर्य, मोती मंडल, भागवत धानुक, शेख इसहाक, लखी भगत, बालो मारकंडे, रामेश्वर पासवान, बाबूलाल मंडल, हेम नारायण गोप, बालेश्वर हाजरा, जय मंगल सिंह और किंजर धानुक जैसे नाम सामूहिक साहस का प्रतीक हैं। इन घटनाओं में जाति, धर्म, वर्ग की दीवारें टूटती नजर आती हैं—शहीदी बहादुरी प्रत्येक सामाजिक समूह में देखी गई।
जिन स्थानीय नेताओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया—डॉ. राजेंद्र प्रसाद, श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, जयप्रकाश नारायण, रामफल मंडल, तारा रानी श्रीवास्तव—उनका योगदान अतुलनीय है। तारा रानी की बहादुरी और नेतृत्व भी उल्लेखनीय रही; उन्होंने अपने पति के गोली लगने के बाद भी आंदोलन को निर्भीकता से जारी रखा। साथ ही साथ आजाद दस्ता जैसी भूमिगत क्रांतिकारी इकाईयों ने उत्तरी बिहार में प्रशासन को ठप कर दिया और जन प्रतिक्रिया को संगठित किया।
महिलाओं की भागीदारी इस आंदोलन का विशेष पक्ष बनी रही। शांति देवी, तारा रानी जैसी महिला नेताओं ने आंदोलन का मोर्चा संभाला और कठिन परिस्थितियों में भी वे पुलिस लाठीचार्ज का सामना करती रहीं। उत्तरी बिहार के गाँव-नगरों में जुलूस, धरना, सत्याग्रह और पुलिस-प्रशासन के भारी दमनकारी उपायों के बावजूद युवाओं, किसानों और मजदूरों का उत्साह कम नहीं हुआ। बलिदानों का यह सिलसिला अगस्त से दिसंबर 1942 तक चलता रहा, जिसमें कई वीर सपूत इतिहास में गुमनाम हो गए परंतु उनकी गाथा स्थानीय मंचों पर जिंदा रही।
स्वतंत्रता के इस निर्णायक संघर्ष में उत्तर बिहार के नेताओं, शहीदों और घटनाओं की भूमिका शौर्य, साहस, और निजत्व के असली अर्थ को जीवंत करती है—इनके कारण भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास और भी समृद्ध बनता है और यह क्षेत्र देश को राष्ट्रीय नेतृत्व, नूतन साहस और अप्रतिम जनशक्ति की विरासत देता है।
ऐतिहासिक अनदेखी: कारण, प्रभाव और समाधान
स्वतंत्रता आंदोलन के बाद भारतीय इतिहास लेखन की मुख्यधारा में उत्तरी बिहार के शहीदों, नेताओं और घटनाओं को जिस स्तर पर स्थान मिलना चाहिए था—वह अपेक्षित सम्मान नहीं मिला। इस ऐतिहासिक अनदेखी के अनेक कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण तो यही है कि राष्ट्रीय इतिहास लेखन का जोर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों, राष्ट्रीय नेताओं और उनके कार्यक्रमों तक सीमित रहा; छोटे शहरों, ग्रामीण क्षेत्रों के अनगिनत घटनाओं और बलिदान को उपेक्षित किया गया।
दूसरा कारण, गांधीवादी आंदोलन का मूल स्वरूप अहिंसा था; लेकिन जब बिहार के कुछ हिस्सों में हिंसक घटनाएं घटित हुईं—जैसे अंग्रेज अधिकारियों की हत्या या प्रशासन की आगजनी—तो इन्हें मुख्य विमर्श में शामिल करने में संकोच रहा। इतिहासकारों ने, अफसरशाही ने और कभी-कभी राष्ट्रीय नेताओं ने भी इन घटनाओं को विमर्श के एक किनारे रखा।
तीसरा बड़ा कारण, स्थानीय दस्तावेजीकरण, शोध और स्मरणोत्सव की कमी रही। बहुत से क्षेत्रीय आंदोलन, शहीदों की जीवनी, उनके पत्र, संस्मरण आज भी सरकारी स्तर पर दर्ज नहीं हैं, कई शहीदों की कब्र या स्मारक तक नहीं बने। सरकारी मान्यता, ‘शहीद’ का दर्जा और परिवारों के लिए सहायता का अभाव रहा। स्वतंत्रता के बाद की राजनीति, संसाधनों और शक्ति के केंद्रीकरण से क्षेत्रीय नायकों को स्थान नहीं मिला। दिल्ली, पटना जैसे शहरों के अफसर, बड़े नेताओं का नाम ही राष्ट्रीय शिक्षा, पाठ्यक्रम, प्रतियोगी परीक्षाओं, सरकारी स्मारकों में छाया रहा।
इन कारणों के प्रभाव से न सिर्फ शहीदों और उनके परिवारों के साथ अन्याय हुआ, बल्कि हमारे समाज की स्मृतियों और उपयोगी प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत भी नजरअंदाज हुआ। यह भी देखना चाहिए कि स्थानीय स्तर पर आंदोलन के दस्तावेजीकरण, स्मारक निर्माण, शोध कार्य और समुचित सार्वजनिक सम्मान, आने वाली पीढ़ियों के लिए उनकी विरासत को सुरक्षित रखने का मुख्य तरीका है। अगर उत्तर बिहार के शहीदों रामफल मंडल, भदई कबाड़ी, धमदाहा के 15 वीरों, तारा रानी जैसे नेताओं को उचित राष्ट्रीय पहचान मिले, उनके नाम पर स्मारक, पांडुलिपियां और सार्वजनिक समारोह नियमित हों, तो हमारी ऐतिहासिक चेतना और भी परिपूर्ण होगी।
समाधान एक व्यापक सामाजिक, सरकारी और शैक्षणिक चेतना के निर्माण का है; जिसमें स्थानीय इतिहास, क्षेत्रीय नेतृत्व, सामाजिक समावेशिता और जनशक्ति के उदाहरणों को पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय समारोह, शोध संस्थानों में स्थान मिले। साथ ही उनके परिवारों को समाज, प्रशासन और सरकार से सम्मान, सहायता और सार्वजनिक स्मरणोत्सव मिले। जब तक हमारे अतीत के स्थानीय नायकों को सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा, तब तक स्वतंत्रता का अर्थ समाज के हर स्तर पर अधूरा रहेगा। यह ऐतिहासिक अनदेखी न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश की ऐतिहासिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि हम अपने क्षेत्रीय शहीदों का गौरव लौटाएं और उनकी विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्स्थापित करें।
उत्तरी बिहार का अविस्मरणीय शौर्य और स्वतंत्रता संग्राम में महत्व
भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तरी बिहार की भागीदारी, शौर्य और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का वह अध्याय है, जो प्रेरणा, साहस और जनसामान्य की प्रतिबद्धता का जीवंत प्रमाण प्रस्तुत करता है। जिस प्रकार यहाँ के विद्यार्थियों ने गोली लगने पर भी तिरंगा हाथ में पकड़े रखा, जिस तरह ग्रामीणों ने सरकारी दमन का निर्भीक प्रतिकार किया, जिस तरह सीतामढ़ी, दरभंगा, पूर्णिया, कटिहार, बक्सर के छोटे-छोटे गाँवों से लोग संगठित हुए, वह संघर्ष आज भी देश को साहस, आदर्श और अपनी पहचान की शिक्षा देता है। उत्तर बिहार के आंदोलनकारियों ने न केवल अंग्रेजी शासन का ध्वंस किया, बल्कि आधुनिक संवैधानिक राष्ट्र की नींव भी मजबूत की।
उस दौर की महिलाओं, किसानों, मजदूरों और युवाओं के असंख्य बलिदानों से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को नया आयाम मिला। उनका संघर्ष, सामूहिक चेतना, नेतृत्व की क्षमता और अपने क्षेत्र, जाति, धर्म, भाषा की सीमाओं के पार जाकर देश के लिए प्राणों की आहुति देने की प्रवृत्ति इसका वास्तविक मूल्य है। दुर्भाग्यवश उनकी वीरता को राष्ट्रीय स्तर पर वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी वे हकदार थे। अब समय है कि समाज, सरकार, शिक्षा संस्थान और जनता आगे आकर इन नायकों की गाथा को राष्ट्रीय इतिहास, संस्मरण, स्मारकों और सार्वजनिक चेतना का हिस्सा बनाएं।
उत्तरी बिहार के शहीदों का बलिदान देश की पीढ़ियों को राष्ट्रीयता, मानवता और सामाजिक न्याय के मूल्य सिखाता है। हमें उनकी स्मृति का सम्मान करके देश के सबसे बड़े आदर्शों की रक्षा करनी चाहिए। तभी स्वतंत्रता आंदोलन की पुकार और उसके अप्रतिम योगदान को समग्रता में समझा और स्वीकारा जा सकेगा। उत्तरी बिहार का इतिहास सिर्फ क्षेत्रीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय है—और उसकी अमर छवि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हमेशा के लिए दर्ज रहनी चाहिए।
अनुसंधान सन्दर्भ सूची
- Shaukat A. Khan, The Struggle for India’s Independence in Bihar 1912-22, New Delhi, 2023
- Quit India Movement and Bihar, BPSC Notes
- Mohammed Murtuza: An Unsung Hero of the Quit India Movement in North Bihar, Journal of Research in Humanities and Social Science, Vol. 12, Issue 8 (2024)
- A Study of the Quit India Movement and Its Impact on the Independence Movement, AIRRO, 2023
- A study on women freedom fighters in united provinces and Bihar, International Journal of Multidisciplinary Research, 2024
- Martyr Ramphal Mandal, Aaj Tak Hindi, 2025
- First Martyr from current Bihar: Ramphal Mandal, Dhanuk.com