लेखक परिचय:- श्याम बिहारी श्यामल का जन्म 1965 में हुआ। वे लगभग तीन दशक से लेखन और पत्रकारिता से जुड़े हैं। उनका पहला चर्चित उपन्यास ‘धपेल’ 1998 में पलामू के सूखा-अकाल पर केंद्रित प्रकाशित हुआ, जबकि दूसरा उपन्यास ‘अग्निपुरुष’ 2001 में आया। उन्होंने कविता-पुस्तिका ‘प्रेम के अकाल में’ और लघुकथा-संग्रह ‘लघुकथाएँ अंजुरी भर’ भी लिखी। उनकी रचनाएँ महत्वपूर्ण संकलनों में शामिल रही हैं। वे वर्तमान में मुंबई से प्रकाशित पत्रिका ‘नवनीत’ में उपन्यास ‘कंथा’ का धारावाहिक लेखन कर रहे हैं और दैनिक जागरण, वाराणसी के संपादकीय विभाग से जुड़े हैं
हिं दी आलोचना के जगत में जिन व्यक्तित्वों ने विचार की धारा को नई दिशा दी, उनमें आचार्य नामवर सिंह शीर्ष पर हैं। उनकी शताब्दी के आरंभिक आयोजन का साक्षात अनुभव कर पाना मेरे लिए किसी आभासीय सौभाग्य से कम नहीं लगा। यह एक ऐसा विशिष्ट पल था, जब अनुभवों ने अक्षरों को पीछे छोड़ दिया, और स्मृति ने जीवन को संगी बनाया।
यह आयोजन श्रद्धेय नामवर जी की गरिमामयी उपस्थिति में उनके जन्मदिन के अवसर पर, ‘राजकमल प्रकाशन’ के सौजन्य से दिल्ली में आयोजित किया गया। आयोजन किसी एक कालखंड के प्रतिनिधि साहित्यकार या समीक्षक की स्मृति में नहीं, बल्कि एक समूचे विचार-परंपरा की वंदना जैसा था। उपस्थित प्रतिभाओं की सूची विभाजित नहीं थी पीढ़ियों में—डॉ. काशीनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ रचनाकारों से लेकर समकालीन सृजनशील पीढ़ी तक, सभी एक ही छाया में खड़े थे—‘नामवर’ की वृहत छाया में।
इस आयोजन में मेरा सम्मिलित होना किसी पूर्व नियोजित योजना का हिस्सा नहीं था। दिल्ली में व्यतीत हो रहे कुछ अवकाश के अंतिम दिनों में, अचानक ‘राजकमल’ जाने का विचार बना और वहाँ अशोक महेश्वरी जी से मुलाक़ात हुई। पता चला कि आयोजन उसी दिन है। संयोग ही था कि बनारस लौटने का मेरा टिकट उसी दिन (28 जुलाई) की देर शाम का था। विकल्प था—नामवर जी को इतने अंतराल के बाद देख-सुन लेने का, वह भी संभवतः आख़िरी बार!
कार्यक्रम स्थल पर जब पहुँचा, तब आदरणीय विश्वनाथ त्रिपाठी जी बोल रहे थे। उनका वक्तव्य किसी ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह लगा—कोमल भावनाओं से सना, अनुभवों से परिपक्व और स्मृति से समृद्ध। तभी लगा, जैसे किसी विचार-वर्षा का आगाज़ हो गया हो। इसके बाद काशीनाथ सिंह जी ने जब बोलना शुरू किया तो नामवर जी का सजीव ‘घर-बाहर’ जैसे दृश्य सामने आ खड़े हुए। वे नामवर जी की जीवन-यात्रा के अनछुए पहलुओं को उजागर करते हुए, उन्हें एक जीवंत कथानक बना रहे थे। उनका वक्तव्य न केवल भावभीना था, बल्कि नामवर जी के व्यक्तित्व में रचे-बसे बनारसपन और उनकी आलोचना की अंतर्धाराओं को भी पकड़ने वाला था।
और फिर मंच पर स्वयं नामवर जी पधारे। उम्र और स्वास्थ्य के प्रभाव अवश्य दिख रहे थे, लेकिन वाणी में वही पुराना ओज, वही शैली, वैसा ही विनोदभाव! उनका वक्तव्य ‘आलोचना’ नहीं था—यह जीवन का एक आत्मीय सस्वर पाठ था। आलोचक नहीं, अब वे एक ऋषि की तरह लग रहे थे—जो जीवन की अनुभूतियों को शब्दों में नहीं, दृष्टियों में समेटे हुए बोल रहे थे। उनकी बातें उतनी ही सुरीली थीं, जितनी शरद की चाँदनी।
कार्यक्रम के दौरान, पृष्ठभूमि में ज्येष्ठ सुपुत्र तृषान्त विशाल सिंह हर क्षण को कैमरे में समेटते जा रहे थे। सविता जी के निर्देश पर वह वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे थे, जो उस शाम को अमर बना रही थी। पर क्षणिक सुख तो तब सघन हुआ जब कार्यक्रम पश्चात नामवर जी से व्यक्तिगत भेंट का अवसर मिला। भीड़ अपने-अपने स्वाद और स्वादिष्टियों में उलझी थी, और हम, कुछ समर्थ लोगों के संग, उस इंद्रधनुषी क्षण में नामवर जी की संगति में प्रार्थना जैसे संवाद कर रहे थे।
बातचीत औपचारिक नहीं थी—ना आलोचनात्मक अवधारणाएँ, ना साहित्यिक विमर्श की दुरूहता। विषय थे—स्वास्थ्य, दिनचर्या, बनारसी जीवन और भूली-बिसरी यादें। और जब सविता जी ने उनके साथ भोजपुरी में बतकही छेड़ी, तो ऐसा लगा जैसे भीतर से कोई बंद दरवाज़ा खुल गया हो। उनकी आँखों में वही बालसुलभ चमक लौट आई। वे बोले—”इहां जेतना कुछ भल, ओह सब में सबसे अच्छा हम्मे इहे लागल!” यह वाक्य भोजपुरी के मान को नहीं, अपितु भावनाओं की गहराई और आत्मीयता की ऊँचाई को रेखांकित करता था।
लेकिन इस भेंट ने मुझे एक ऐसी स्मृति दे दी, जो आज तक प्रश्न की तरह मन में हूक उठाती है। यह हमारी अंतिम भेंट थी—यह मैं तब नहीं जानता था। इस मुलाकात में एक अजीब संयोग घटा। हर बार की तरह, जब मैंने उन्हें पांव छूकर प्रणाम करना चाहा, तो उन्होंने झुकते ही मेरे दोनों हाथों को पकड़ लिया—थाम लिया जैसे कोई आशीर्वाद का प्रवाह रोकना चाहता हो। मैं अवाक् रह गया। यह वही नामवर जी थे, जो हमेशा अपनी गंभीर गरिमा के साथ सामने आते थे। उस क्षण लगा, आकाश ज़मीन पर उतर आया हो! और जब कोई ऐसा करता है, जिसे आप आकाश की ऊँचाइयों पर देखते आए हों—तो यह दृश्य श्रद्धा से अधिक करुणा और विस्मय में डूब जाता है।
कभी-कभी गुरु जब शिष्य या आत्मीय को स्नेह से आलिंगन करता है, तो पदानुक्रम नहीं घटता—बल्कि वह और आध्यात्मिक हो जाता है। यही क्षण था, जब मेरे लिए नामवर जी आचार्य नहीं, एक आत्मीय पिता-से हो गए थे।
पर नियति इतनी सहजता कब स्वीकारती है! यह भेंट हमारे बीच की अंतिम भेंट सिद्ध हुई। उसके बाद केवल स्मृतियाँ रहीं, संवाद के क्षण नहीं। अब जब नामवर जी की जन्म-शताब्दी के आलोक में उनके विराट कृतित्व और महान व्यक्तित्व को स्मरण किया जा रहा है, तो वह छोटी-सी भेंट, वह एक क्षण जब उन्होंने मेरा हाथ थामा था, मेरे लिए एक तीर्थ जैसा बन गया है।
नामवर जी की स्मृतियों को बार-बार नमन करते हुए यह महसूस होता है कि उनका कद न केवल साहित्य-जगत की सीमा में समाहित था, बल्कि उन्होंने विचारों की समूची गंगा को प्रवाहित किया। उनके बिना हिंदी आलोचना अधूरी रहेगी—और उनसे मेरा यह आत्मीय संवाद जीवन की संपत्ति।
जब कोई ‘नाम’ वरदान बन जाता है, तब वह शब्द नहीं, संस्कार बन जाता है।
नामवर जी ऐसे ही ‘वरद’ नाम थे—जिन्हें देखना, सुनना, छूना, समझना, सब कुछ एक तपस्या का भाग था। उनकी स्मृति में यही नमन: