अजीत अंजुम जैसे पत्रकारों पर हो रही कार्रवाई सिर्फ उन व्यक्तियों पर हमला नहीं है, बल्कि यह पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर हमला है. हमें यह समझना होगा कि यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं रहेगा, तो जनता को कभी भी पूरी सच्चाई नहीं पता चलेगी, और एक सूचित नागरिक के बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता. यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम प्रेस की स्वतंत्रता के लिए खड़े हों और उन आवाजों का समर्थन करें जो सत्ता से सवाल पूछने का साहस रखती हैं. भारतीय लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए जनता को जागना ही होगा.
विनोद आनंद
भारत का लोकतंत्र चार मजबूत स्तंभों पर टिका है – कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और मीडिया. इन सभी की अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं और लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए इनके बीच परस्पर सहयोग और समन्वय अत्यंत आवश्यक है. दुर्भाग्य से, आज यह संतुलन बिगड़ता दिख रहा है, और इसका एक बड़ा कारण जनता का ‘स्लीपिंग मोड’ में होना है. जब लोकतंत्र के स्तंभों में से कोई निरंकुश होने लगे, तो जनता को जागना होगा और ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा होना होगा.
आज हम लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक, मीडिया, की भूमिका और उसकी स्वतंत्रता पर गहनता से चर्चा करेंगे. क्या आज मीडिया वास्तव में स्वतंत्र है? क्या उसे ईमानदारी से अपना काम करने की पूरी आज़ादी है? जवाब दुर्भाग्यवश ‘नहीं’ है.
बेगूसराय का मामला और मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल
हाल ही में बिहार के बेगूसराय में पत्रकार अजीत अंजुम के साथ हुई घटना इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे मीडिया को सच सामने लाने की कीमत चुकानी पड़ रही है. अजीत अंजुम ने चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे वोटर पुनरीक्षण कार्य में अनियमितताओं को उजागर किया. उन्होंने दिखाया कि कैसे एक केंद्र पर बिना पूरी जानकारी के वोटर फॉर्म अपलोड किए जा रहे थे. इस अनियमितता को सामने लाने के बजाय, जिला प्रशासन ने अजीत अंजुम पर ही मामला दर्ज कर दिया. यह घटना न केवल स्तब्ध करने वाली है, बल्कि यह मीडिया की स्वतंत्रता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न भी लगाती है.
आमतौर पर, ऐसे मामलों में प्रशासन और सरकार को उस पत्रकार का धन्यवाद करना चाहिए था, जिसने कर्मचारियों की लापरवाही को उजागर किया और चुनाव आयोग के काम को सही ढंग से न होने देने वाली खामियों को सामने लाया. लेकिन इसके बजाय, कार्रवाई उस व्यक्ति पर की गई जिसने जनता के हित में आवाज उठाई. यह प्रवृत्ति अत्यंत चिंताजनक है.
अजीत अंजुम अकेले ऐसे पत्रकार नहीं हैं. देश भर में हजारों पत्रकार ऐसे हैं, जो सच को सामने लाने, सरकार के कामों की खामियां उजागर करने या व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रकाश डालने के कारण या तो जेल में हैं या उन पर मुकदमे दर्ज हैं, जिसके चलते वे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. यह पत्रकारों के लिए एक भयावह स्थिति पैदा करता है और उन्हें अपनी आवाज उठाने से रोकता है.
सरकार और जनता की जिम्मेदारी
बिहार की नीतीश सरकार इस पूरे प्रकरण में यह कहकर पल्ला झाड़ सकती है कि यह चुनाव आयोग का काम है और राज्य सरकार इसमें क्या कर सकती है. लेकिन यह एक कमजोर बहाना है. केस तो राज्य सरकार के अधिकारी ही दर्ज कर रहे हैं. सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह पहले पत्रकार द्वारा सामने लाए गए तथ्यों की सच्चाई की जांच करे. यदि तथ्यों में सच्चाई है, तो संबंधित अधिकारियों या कर्मचारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए, जिन्होंने इस तरह की अनियमितता बरती और उलटा पत्रकार पर ही कार्रवाई की. इस मामले में, नीतीश सरकार में उतनी साहस नहीं दिखाई देती है, जो लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है.
ऐसे हालात में, जनता की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. लोकतंत्र में असली मालिक जनता होती है. जनता अपने बीच से प्रतिनिधि चुनकर भेजती है, ताकि वे उनके अधिकारों, सुविधाओं और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने वाली व्यवस्था को देखें. लेकिन आज दुर्भाग्यवश, जनता को जाति, धर्म और अंधभक्ति के मायाजाल में इस कदर उलझा दिया गया है कि उनका विवेक ही मर गया है. वे अपने वास्तविक हितों को समझने और उसके लिए आवाज उठाने में विफल हो रहे हैं.
मीडिया का बढ़ता ध्रुवीकरण
आज मीडिया भी दो स्पष्ट वर्गों में बंट गया है. एक है ‘गोदी मीडिया’, जो सरकारी विज्ञापनों और सरकार समर्थित कॉरपोरेट घरानों के आर्थिक सहयोग से फल-फूल रहा है. यह वर्ग अक्सर सरकार की नीतियों और कार्यों का आँख मूंदकर समर्थन करता है, और उनकी आलोचना करने से बचता है. वहीं, दूसरा वर्ग स्वतंत्र पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करता है, जो जनता की आवाज और सच को सामने लाने का अथक प्रयास कर रहा है. अजीत अंजुम और उन जैसे हजारों पत्रकार इसी दूसरे वर्ग का हिस्सा हैं, जो सच्चाई के लिए कीमत चुका रहे हैं.
यह ध्रुवीकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है. जब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता के हाथों की कठपुतली बन जाता है, तो जनता तक सही और निष्पक्ष जानकारी पहुंचना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में, जनता को अपने विवेक का उपयोग करना और विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त कर सच्चाई को परखना सीखना होगा.
न्यायपालिका की भूमिका और आगे का रास्ता
इस पूरी स्थिति में, न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है. न्यायपालिका को पत्रकारों के हितों की रक्षा करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बिना किसी डर या पक्षपात के अपना काम कर सकें. जिन अधिकारियों और सरकारों ने इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया है, उन्हें दोषी ठहराया जाना चाहिए और उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए. न्यायपालिका को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के संवैधानिक अधिकारों को दृढ़ता से बनाए रखना चाहिए.
यह आवश्यक है कि इस तरह की दमनकारी प्रवृत्तियों पर रोक लगे, तभी हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा. जनता को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और ‘स्लीपिंग मोड’ से बाहर आना होगा. उन्हें अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से जवाबदेही मांगनी होगी और उन संस्थाओं के खिलाफ आवाज उठानी होगी जो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रही हैं. जब तक जनता जागरूक और सक्रिय नहीं होगी, लोकतंत्र के स्तंभों को मजबूत नहीं किया जा सकता.
अजीत अंजुम जैसे पत्रकारों पर हो रही कार्रवाई सिर्फ उन व्यक्तियों पर हमला नहीं है, बल्कि यह पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर हमला है. हमें यह समझना होगा कि यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं रहेगा, तो जनता को कभी भी पूरी सच्चाई नहीं पता चलेगी, और एक सूचित नागरिक के बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता. यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम प्रेस की स्वतंत्रता के लिए खड़े हों और उन आवाजों का समर्थन करें जो सत्ता से सवाल पूछने का साहस रखती हैं. भारतीय लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए जनता को जागना ही होगा.