आज भारतीय राजनीति में एक अहम बहस छिड़ी हुई है, क्या देश के सर्वोच्च पदों, विशेषकर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता और अधिकतम आयु सीमा निर्धारित होनी चाहिए? यह चर्चा भाजपा के भीतर 75 वर्ष की आयु सीमा के नियम और उसके संभावित प्रभाव से शुरू हुई है, लेकिन इसका दायरा कहीं अधिक व्यापक है और यह हमारे संवैधानिक ढांचे और लोकतांत्रिक भविष्य से संबंधित महत्वपूर्ण सवाल उठाता है।
(विनोद आनंद)
आ ज भाजपा के अंदर पीएम मोदी द्वारा निर्धारित सक्रिय राजनीति में संवैधानिक पदों पर बने रहने क़ो लेकर तय उम्र सीमा क़ो लेकर बहस छिड़ी हुई हैं.क्योंकि 75 वर्ष की उम्र सीमा के कारण आडवाणी मुरली मनोहर जोशी यशवंत सिन्हा समेत इस पीढ़ी के कई राजनेताओं क़ो सेवानिवृत होना पड़ा. मोदी जी का यह पार्टी के अंदर एक बहुत कठिन निर्णय था. जिसेलोगों ने सराहा भी तो कुछ लोगों ने आलोचना भी किया. लेकिन अब मोदी जी सितम्बर में उम्र के 75 वें पड़ाव पर पहुँच जायेंगे तो इस पर चर्चा होना शुरू हो गयी है कि भाजपा के अंदर तय उम्र सीमा मोदी जी पर भी लागू होगा…?
इस पर दो विचार आ रहे हैं. एक वर्ग ऐसा हैं जिसका मानना हैं कि मोदी जी के नेतृत्व में भारत आज विश्व का पांचवां इकोनॉमी बना औऱ वैश्विक स्तर पर भारत मज़बूत हुआ हैं इसी लिए आज देश क़ो मोदीजी की जरूरत हैं.
दूसरा वर्ग यह मानता हैं कि मोदी जी के जगह भाजपा के अंदर दूसरे नेता क़ो मौका मिले ताकि तय मानक का पलन हो, ऒर एक शुरू हुई परम्परा का निर्वहन हो.
इसके साथ हीं नए सिरे से बहस छिड़ गई है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पदों के लिए शैक्षणिक योग्यता और अधिकतम आयु सीमा तय करने की आवश्यकता हैं या नहीं…! केवल राजनीतिक गलियारों में ही नहीं बल्कि यह बहस भाजपा के 75 वर्ष की आयु सीमा के नियम से शुरू होकर अब एक राष्ट्रीय विमर्श का रूप ले चुकी है।
संवैधानिक पदों के लिए योग्यता: एक अनदेखी आवश्यकता
भारत में सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, पुलिसकर्मियों और यहां तक कि चपरासी की नियुक्ति के लिए भी शैक्षणिक योग्यता और चरित्र प्रमाण पत्र अनिवार्य हैं। इसके विपरीत, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए न तो न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित है, न ही आपराधिक पृष्ठभूमि पर स्पष्ट प्रतिबंध! यह विरोधाभास लोकतांत्रिक सिद्धांतों और सुशासन की अवधारणा के विपरीत है. जब देश की नीतियाँ और भविष्य का निर्धारण करने वाले पदों के लिए कोई न्यूनतम मानक न हो, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत को अपने संवैधानिक पदाधिकारियों के लिए स्पष्ट योग्यता मानदंड तय नहीं करने चाहिए?
आयु और अनुभव: संतुलन की आवश्यकता
भारतीय समाज में 60-62 वर्ष की आयु को कार्यक्षमता की अधिकतम सीमा माना जाता है, इसी कारण अधिकांश सरकारी सेवाओं में सेवानिवृत्ति की आयु भी यही है. भाजपा ने 75 वर्ष की आयु सीमा का नियम लागू कर वरिष्ठ नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग किया.
यह नियम पार्टी के भीतर भले ही हो, लेकिन यह पूरे देश में बहस का विषय बन गया है कि क्या देश के सर्वोच्च पदों पर भी ऐसी अधिकतम आयु सीमा होनी चाहिए. अनुभव और ऊर्जा के संतुलन के लिए यह आवश्यक है कि केवल अनुभव को महत्त्व दिया जाए, बल्कि युवा ऊर्जा को नेतृत्व में अनुकूलनशीलता, मानसिक ताजगी और भविष्य की चुनौतियों से निपटने की क्षमता हो. सिर्फ भाजपा हीं क्यों सभी पार्टी के लिए यह एक मानक हो.
शैक्षणिक योग्यता: क्या यह मायने रखती है?
आज भारत में सांसद या विधायक बनने के लिए कोई न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं है. यह विडंबना है कि जहाँ सरकारी सेवाओं में स्नातक या उच्च डिग्री अनिवार्य है, वहीं देश का नेतृत्व करने वालों के लिए कोई शैक्षिक मानक नहीं है. तर्क दिया जाता है कि अनुभव और व्यावहारिक ज्ञान औपचारिक शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में जटिल नीतिगत निर्णय, अंतरराष्ट्रीय संबंधों की समझ और आर्थिक विश्लेषण के लिए एक बुनियादी शैक्षणिक पृष्ठभूमि आवश्यक है.
शिक्षा केवल डिग्री नहीं, बल्कि विश्लेषणात्मक सोच, व्यापक दृष्टिकोण और तर्कशक्ति विकसित करती है, जो नेतृत्व के लिए जरूरी है.
आपराधिक पृष्ठभूमि: लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती
आज भी संसद और विधानसभाओं में ऐसे कई सदस्य हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. जब एक सामान्य नागरिक को सरकारी नौकरी के लिए चरित्र प्रमाण पत्र देना होता है, तो देश के कानून बनाने वालों के लिए यह अनिवार्यता क्यों नहीं? हालांकि, यह भी सच है कि कई मामलों में राजनीतिक प्रतिशोध के तहत मुकदमे दर्ज होते हैं, लेकिन जघन्य अपराध, भ्रष्टाचार या गंभीर कदाचार के मामलों में आरोप तय होने के बाद चुनाव लड़ने की अनुमति देना लोकतंत्र और सुशासन के सिद्धांतों के विपरीत है.
सार्वजनिक जीवन में शुचिता और संस्थाओं की अखंडता के लिए यह आवश्यक है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को संवैधानिक पदों से दूर रखा जाए.
नीति निर्माण की आवश्यकता: आगे की राह
इन मुद्दों पर एक व्यापक राष्ट्रीय बहस और स्पष्ट नीति निर्माण की आवश्यकता है. इसके कुछ प्रमुख बिंदु जिन पर विचार किया जाना चाहिए:
आयु सीमा: प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के लिए अधिकतम आयु सीमा तय होनी चाहिए. अपवाद स्वरूप, विशिष्ट विशेषज्ञता या राष्ट्रीय आपातकाल जैसी परिस्थितियों में छूट दी जा सकती है.
शैक्षणिक योग्यता: इन पदों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की जानी चाहिए, जिसमें व्यावसायिक शिक्षा या अनुभव को भी मान्यता दी जा सकती है.
आपराधिक रिकॉर्ड: गंभीर आपराधिक मामलों में आरोप तय होने के बाद चुनाव लड़ने या संवैधानिक पद संभालने पर प्रतिबंध होना चाहिए. अपराधों की प्रकृति और प्रक्रिया स्पष्ट रूप से परिभाषित की जानी चाहिए.
लोकतांत्रिक भविष्य की दिशा
यह बहस केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक भविष्य और शासन की गुणवत्ता से जुड़ा मुद्दा है.एक स्वस्थ लोकतंत्र वही है जो आत्मचिंतन करता है और समय के साथ अपने संस्थानों को मजबूत करता है.इन सुधारों के लिए शिक्षाविदों, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों की भागीदारी जरूरी है.
भारत को ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है, जो न केवल जनता की सेवा के लिए प्रतिबद्ध हो, बल्कि उसके पास देश को आगे ले जाने के लिए आवश्यक योग्यता, ऊर्जा और नैतिक आधार भी हो. यह तभी संभव है जब हम संवैधानिक पदों के लिए स्पष्ट, न्यायसंगत और व्यावहारिक मानदंड तय करें.
अंत में यह कहना चाहेंगे कि अब समय आ गया है कि भारत अपने लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए नेतृत्व के मानकों को फिर से परिभाषित करे. यह न केवल शासन की गुणवत्ता को ऊँचा उठाएगा, बल्कि जनता का विश्वास भी बढ़ाएगा. क्या हम एक ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ नेतृत्व योग्यता, नैतिकता और ऊर्जा का प्रतीक हो? यह सवाल हमारे लोकतंत्र की जड़ों को और गहरा मज़बूत करेगा और देश को प्रगति के पथ पर आगे ले जाएगा.
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