शेख हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश ने आर्थिक विकास की एक लंबी छलांग लगाई थी। पद्मा ब्रिज जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स और डिजिटल बांग्लादेश की पहल ने देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। उनके शासनकाल में, सभी वर्गों और समुदायों में एक सामंजस्य था और फिरकापरस्त (सांप्रदायिक) लोगों पर नियंत्रण था। आज यह सामंजस्य और नियंत्रण कहीं नज़र नहीं आता।
(विनोद आनंद)
द क्षिण एशिया का राजनीतिक परिदृश्य हमेशा से ही जटिल रहा है, और बांग्लादेश इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। 1971 में जिस उम्मीद और संघर्ष के साथ बांग्लादेश ने पाकिस्तान से खुद को अलग कर एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में पहचान बनाई, वह राह कभी सीधी नहीं रही। आज, 22 जुलाई 2025 को जब हम बांग्लादेश के मौजूदा हालात पर नज़र डालते हैं, तो यह कहना मुश्किल है कि देश अपने संस्थापक सिद्धांतों पर कायम है। 2024 के छात्र-नेतृत्व वाले आंदोलनों ने शेख हसीना के लंबे शासन का अंत किया और नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस को सत्ता के केंद्र में ले आए।
लेकिन, जिस उम्मीद के साथ यह बदलाव आया था, वह जल्द ही निराशा में बदलता दिख रहा है। “मन भर गया यूनुस से, आ रही हसीना की याद” – यह सिर्फ एक भावनात्मक पुकार नहीं, बल्कि वर्तमान की चुनौतियों और एक खोई हुई स्थिरता की गहरी कसक है।
भारत से बिगड़ते रिश्ते: यूनुस की गलत कूटनीति का खामियाजा
मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने जिस सबसे बड़े और दुर्भाग्यपूर्ण मोर्चे पर बांग्लादेश को नुकसान पहुँचाया है, वह है भारत के साथ उसके संबंध। हसीना के शासनकाल में भारत-बांग्लादेश संबंध ऐतिहासिक ऊँचाई पर थे। कनेक्टिविटी से लेकर व्यापार तक, दोनों देशों ने साझा हितों और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए मिलकर काम किया। लेकिन, यूनुस ने सत्ता संभालते ही अलगाववादी ताकतों के प्रभाव में आकर भारत विरोधी रुख अपनाया। उनकी नीतियों ने न केवल द्विपक्षीय व्यापार को बाधित किया, बल्कि बांग्लादेश के रेडिमेड गारमेंट निर्यात बाज़ार को भी प्रभावित किया।
सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि यूनुस ने चीन जाकर भारत विरोधी बातें कीं, जिससे दोनों पड़ोसियों के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हो गई। जिस भारत ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उस भारत से दूरी बनाना बांग्लादेश की दीर्घकालिक रणनीतिक हितों के खिलाफ है। यह न केवल आर्थिक मोर्चे पर नुकसानदेह है, बल्कि क्षेत्रीय संतुलन और सुरक्षा के लिए भी खतरा है। बांग्लादेश का पाकिस्तान से अलग होने का मूल कारण ही इस्लामी कट्टरवाद और अलगाववाद का विरोध था, लेकिन आज यूनुस के नेतृत्व में बांग्लादेश पाकिस्तान के करीब जाता और उसके हाथ का खिलौना बनता दिख रहा है, जो 1971 के शहीदों के बलिदान का अपमान है।
आर्थिक बदहाली और सामाजिक विघटन: गलत नीतियों का परिणाम
शेख हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश ने आर्थिक विकास की एक लंबी छलांग लगाई थी। पद्मा ब्रिज जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स और डिजिटल बांग्लादेश की पहल ने देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। उनके शासनकाल में, सभी वर्गों और समुदायों में एक सामंजस्य था और फिरकापरस्त (सांप्रदायिक) लोगों पर नियंत्रण था। आज यह सामंजस्य और नियंत्रण कहीं नज़र नहीं आता।
यूनुस सरकार की गलत आर्थिक नीतियों ने बांग्लादेश को बेतहाशा महंगाई और बेरोजगारी के दलदल में धकेल दिया है। आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं, जिससे आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है। युवाओं में बेरोजगारी चरम पर है, और कपड़ा उद्योग जैसी रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले सेक्टर भी खस्ताहाल हैं। प्रति व्यक्ति आय में मामूली वृद्धि के बावजूद, बढ़ता विदेशी कर्ज (हर नागरिक पर औसतन $483) और वित्तीय कुप्रबंधन ने अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट में डाल दिया है। सरकारी कर्मचारियों को वेतन न मिलना और आर्थिक कुप्रबंधन स्पष्ट रूप से गलत प्राथमिकताओं का संकेत है।
सेना-सरकार संबंध और लोकतांत्रिक आशाओं पर ग्रहण
यूनुस की सरकार ने एक के बाद एक ऐसे निर्णय लिए, जिससे न सिर्फ देश के अंतर्राष्ट्रीय संबंध बिगड़े, बल्कि आंतरिक मोर्चे पर भी अस्थिरता आई। सेना और सरकार के बीच बिगड़ते संबंध देश की स्थिरता के लिए एक गंभीर खतरा हैं। जब देश की सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं के बीच समन्वय नहीं होता, तो अराजकता फैलना तय है।
लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने का वादा करके सत्ता में आए यूनुस ने खुद लोकतांत्रिक आशाओं पर ग्रहण लगा दिया है। उनकी सरकार पर विपक्ष-दमन, पुराने दलों पर प्रतिबंध लगाने और नए दलों को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने के आरोप लग रहे हैं। मीडिया पर दबाव और नागरिक समाज पर नज़र रखने की घटनाओं ने राजनीतिक स्वतंत्रता को सीमित किया है। यह सब उस लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है, जिसके लिए बांग्लादेश ने संघर्ष किया था।
क्या हसीना की वापसी ही समाधान है?
आज बांग्लादेश की जनता एक चौराहे पर खड़ी है। एक तरफ यूनुस के नेतृत्व में बढ़ती अराजकता, आर्थिक बदहाली और अंतर्राष्ट्रीय अलगाव है, वहीं दूसरी तरफ शेख हसीना के शासनकाल की स्थिरता, विकास और एक मजबूत क्षेत्रीय पहचान की यादें हैं। यह कहना मुश्किल है कि क्या हसीना की वापसी ही सभी समस्याओं का समाधान है, क्योंकि उनके शासनकाल की अपनी चुनौतियां थीं।
लेकिन, यह स्पष्ट है कि वर्तमान नेतृत्व देश को गलत दिशा में ले जा रहा है। बांग्लादेश को अब एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो न केवल आर्थिक स्थिरता ला सके, बल्कि भारत जैसे भरोसेमंद सहयोगियों के साथ संबंधों को फिर से मजबूत करे, सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दे, और एक वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना करे जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो और हर नागरिक सुरक्षित महसूस करे।
बांग्लादेश का भविष्य खतरे में है। जिस देश ने 1971 में अपनी पहचान और स्वायत्तता के लिए इतना बड़ा बलिदान दिया, उसे आज अपने ही नेतृत्व की गलतियों से जूझना पड़ रहा है। उम्मीद है कि बांग्लादेशी जनता और उसके नेता इस चौराहे पर सही रास्ता चुनेंगे, ताकि बांग्लादेश फिर से अपने संस्थापक सपनों—लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी विकास—की ओर लौट सके।