बिहार में महागठबंधन की रैली में कन्हैया कुमारऔऱ पप्पू यादव क़ो मंच पर नहीं चढ़ने देना महागठबंधन की राजनितिक जीत नहीं रणनीतिक भूल थी, इस पुरे प्रकरण में पप्पू यादव औऱ कन्हैया कुमार के पक्ष में बिहार हीं नहीं देश भर में सहानुभूति की लहर है. जितना जल्दी हो सके कांग्रेस औऱ राजद क़ो अपनी इस गलती पर आत्म मंथन कर लेना चाहिए, पढ़िए पूरी सम्पादकीय में इसके क्या है मायने………
विनोद आनंद
बि हार की राजनीति पिछले कुछ वर्षों से असमंजस, विचलन और विघटन का शिकार रही है। कभी जन आंदोलनों की जननी मानी जाने वाली यह भूमि आज ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ विपक्ष, विशेषकर महागठबंधन, अपनी ही चालों में उलझा दिखाई देता है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और वामपंथी दलों सहित कई घटक दल मिलकर भाजपा के खिलाफ एक सशक्त विकल्प पेश करने का दावा करते हैं, किंतु यह दावा तब खोखला प्रतीत होता है जब उन्हीं के भीतर ऐसे निर्णय लिए जाते हैं जो उनके अपने ही नेताओं की क्षमताओं को दबा देते हैं। यह स्थिति हमें इस दुर्भाग्यपूर्ण सत्य से अवगत कराती है कि बिहार का विपक्ष एक ‘क्षमता के अभिशाप’ से गुजर रहा है।
‘अधिक होशियारी’ का जाल: नेतृत्व का डर या अदूरदर्शिता?
राजनीति में रणनीति और दूरदृष्टि की आवश्यकता होती है, लेकिन जब नेतृत्व केवल अपने व्यक्तिगत वर्चस्व की चिंता में प्रतिभाशाली नेताओं को आगे बढ़ने से रोकने लगे, तो वह आत्मघाती राजनीति बन जाती है। कन्हैया कुमार और पप्पू यादव का महागठबंधन की रैली में मंच पर न बुलाया जाना या यों कहें नहीं चढ़ने देना इसी मानसिकता का उदाहरण है। कन्हैया के विचारों की स्पष्टता, तर्क की ताकत और युवाओं में उनकी लोकप्रियता किसी से छुपी नहीं है।
वहीं पप्पू यादव वर्षों से बिहार की ज़मीनी राजनीति के नायक रहे हैं, जिन्होंने आपदा-काल में जनता के बीच जाकर जो कार्य किया है, वह प्रशंसनीय है। ऐसे नेताओं को मंच से दूर रखने की हरकत ने न केवल महागठबंधन की एकता पर सवाल खड़े किए, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि विपक्ष नेतृत्व के असुरक्षा बोध और अदूरदर्शिता के चलते अपनी ही संभावनाओं को कुंद कर रहा है।
कन्हैया और पप्पू यादव: राजनीति के उभरते सितारे या कुंठित बिरादरी की कुर्बानी?
कन्हैया कुमार और पप्पू यादव न केवल बिहार में बल्कि पूरे देश में एक अलग किस्म की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। कन्हैया का अतीत जितना विचारधारात्मक संघर्षों से भरा है, उतनी ही उनकी भाषा में जनपक्षधरता साफ झलकती है। पटना विश्वविद्यालय और जेएनयू जैसे शिक्षा संस्थानों से निकले इस युवा नेता ने भाजपा और नरेंद्र मोदी शासन को जिस तरह से चुनौती दी है, वह आज की कांग्रेस के किसी बिहार नेता के बस की बात नहीं है।
पप्पू यादव की राजनीति चाहे कितनी भी विवादास्पद क्यों न रही हो, लेकिन उनकी कार्यक्षमता और जनता के साथ असल जुड़ाव उन्हें एक अद्वितीय जन नेता बनाता है। सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल जैसे क्षेत्रों में उनका सीधा जनसम्पर्क और प्रभाव म्हागठबंधन के लिए अमूल्य साबित हो सकता है।
महागठबंधन की ‘दरबारी संस्कृति’ और नेतृत्व संकट
आज विपक्षी महागठबंधन को सबसे बड़ा खतरा भाजपा से कम, अपनी ही ‘दरबारी संस्कृति’ से अधिक है। राजद हो या कांग्रेस, दोनों ही दलों के पास कुछ ऐसे ‘मठाधीश’ मौजूद हैं जो जमीनी नेताओं के उभार को खतरे के रूप में देखते हैं। राजनीति में यह स्वाभाविक हो सकता है, लेकिन जब यह प्रवृत्ति नेतृत्व को घेरे रखने लगे और निर्णयों पर हावी हो जाए, तो यह दल और गठबंधन को अपंग बना देती है। कांग्रेस का बिहार में कोई राज्यव्यापी चेहरा नहीं है—यह सच्चाई स्वयं कांग्रेस भी जानती है। ऐसे में कन्हैया कुमार और पप्पू यादव जैसे नेताओं को उपेक्षित करना पार्टी की सबसे बड़ी भूल साबित हो सकती है।
तेजस्वी यादव के नेतृत्व का सवाल: अवसर है या चुनौती?
तेजस्वी यादव, महागठबंधन के निर्विवाद रूप से सबसे प्रमुख नेता हैं। उन्हें विपक्ष के ‘मुख्यमंत्री चेहरा’ के रूप में व्यापक समर्थन मिलता है। उन्होंने बिहार विधानसभा 2020 में जो प्रदर्शन किया, वह उल्लेखनीय था। लेकिन यदि उनके नेतृत्व को सुरक्षित रखने के नाम पर नए नेताओं को दबा दिया जाए, तो यह सिर्फ नेतृत्व के आत्मविश्वास पर सवाल उठाता है। पप्पू और कन्हैया की उपस्थिति तेजस्वी के कद को कम नहीं करती, बल्कि इस गठबंधन को विविधता और शक्ति प्रदान करती है। तेजस्वी को चाहिए कि वे दरबारी तंत्र से ऊपर उठकर एक समावेशी नेता बनें—तभी बिहार का विपक्ष सशक्त विकल्प बन सकता है।
चुनावी समीकरण और वोट बैंक की हकीकत
बिहार की जातीय और सामाजिक संरचना बेहद जटिल है। ओबीसी, मुस्लिम, दलित और सवर्ण वोटों पर हर दल की नजर होती है। भाजपा और एनडीए जहां सवर्णों व ईबीसी में मजबूत हैं, वहीं महागठबंधन को मुस्लिम-यादव समीकरण पर भरोसा है। लेकिन यह समीकरण अब पहले जैसा प्रभावी नहीं रहा। सीमांचल जैसे इलाकों में मुस्लिम-बनाम-मुस्लिम वोट का खतरा बढ़ गया है जहां AIMIM, AAP और पीके की युवा झारखंड पार्टी जैसे नए दल चुनौती बना सकते हैं। ऐसे में पप्पू यादव का प्रभाव विशेष रूप से निर्णायक हो सकता है।
सीमांचल में उनका असर महागठबंधन को काफी लाभ पहुंचा सकता है, बशर्ते उन्हें उचित मंच मिले।
प्रशांत किशोर और ‘आप’ की एंट्री: नई चुनौती, नया सन्देश
प्रशांत किशोर और आम आदमी पार्टी की बिहार में हुई हलचल अब केवल शोर नहीं रह गई है; यह महागठबंधन के वोटों को सीधे प्रभावित करने वाली ताकत बनती जा रही है। पीके की ‘जनसुराज यात्रा’ और केजरीवाल की ‘मुफ्त शिक्षा-स्वास्थ्य’ की छवि बिहार के युवाओं और शहरी मतदाताओं को लुभा रही है। ऐसे में अगर महागठबंधन में कन्हैया और पप्पू जैसे नेता सक्रिय और प्रमुख भूमिका में शामिल किए जाते हैं, तो यह गठबंधन इन नए खतरों का बेहतर ढंग से मुकाबला कर सकता है।
समाधान की दिशा: संवाद, समावेश और रणनीतिक कौशल
महागठबंधन के लिए अभी भी बहुत कुछ सम्भव है। पहले चरण में कांग्रेस को वैचारिक और मानसिक खुलेपन की आवश्यकता है—उन्हें अपने भीतर के असुरक्षित नेताओं को ठोस संदेश देना होगा कि पार्टी अब उन नेताओं को प्रोत्साहित करेगी जिनकी पकड़ जनता में है।
दूसरे चरण में राजद को तेजस्वी यादव की छवि को जोड़ने के साथ-साथ उनकी टीम में विविधता लानी चाहिए। अगर पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसे लोग सत्ताधारी भाजपा को चुनौती दे सकते हैं, तो उन्हें केवल एक मंच पर जगह देना ही नहीं, बल्कि नीति-निर्धारण और नेतृत्व में भी स्थान देना चाहिए।
अब मेरा सवाल है क्या विपक्ष इस ‘क्षमता के अभिशाप’ से उबर पाएगा?
आज बिहार का विपक्ष दोराहे पर है। एक ओर भाजपा का मजबूत संगठन, धन बल और राष्ट्रवादी विमर्श है; तो दूसरी ओर विपक्ष के पास जनसमर्थन की संभावनाएं, सामाजिक समीकरण और असाधारण लेकिन उपेक्षित नेतृत्व की पूंजी है।
यह पूंजी तभी लाभकारी होगी जब महागठबंधन नेतृत्व अपने डर, अहंकार और संकीर्ण स्वार्थों को छोड़कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाएगा। पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को यदि उनका उचित स्थान दिया गया, तो विपक्ष भाजपा को एक ठोस चुनौती दे सकेगा।
यह केवल गठबंधन को मजबूत नहीं करेगा, बल्कि बिहार में विपक्ष को फिर से प्रासंगिक और जनप्रिय भी बनाएगा। सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस अवसर को पहचानेगा, या अंधकारपूर्ण ‘क्षमता के अभिशाप’ में ही फंसा रहेगा?