किसी भी लोकतांत्रिक देश में हिंसक आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं होती। भारत, एक ऐसा राष्ट्र है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिना’ के भाव में विश्वास रखता है और शांति व अहिंसा को अपने मूल्यों का आधार मानता है। ऐसे में बंदूक के दम पर तथाकथित समानता लाने जैसे हिंसक और अतार्किक दर्शन वाले नक्सली आंदोलन के लिए कोई स्थान क्यों हो सकता है?
लेखक :-विक्रम उपध्याय (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार
भा रत में नक्सलवाद और अल्ट्रा वाम विचारधारा का अंत अब एक दूर का सपना नहीं, बल्कि एक करीब की सच्चाई प्रतीत हो रहा है। दशकों तक देश के बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली यह हिंसक समस्या, जिसे कुछ लोग सामाजिक-आर्थिक असंतोष का परिणाम मानते थे, अब मोदी सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति, सुनियोजित रणनीतियों और बहुआयामी दृष्टिकोण के कारण अपने खात्मे की ओर बढ़ रही है। 20वीं सदी के छठे दशक में शुरू हुआ यह आंदोलन, जो कभी भारतीय राज्य को खुली चुनौती देता था, अब 21वीं सदी के तीसरे दशक में अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में हिंसक आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं होती। भारत, एक ऐसा राष्ट्र है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिना’ के भाव में विश्वास रखता है और शांति व अहिंसा को अपने मूल्यों का आधार मानता है। ऐसे में बंदूक के दम पर तथाकथित समानता लाने जैसे हिंसक और अतार्किक दर्शन वाले नक्सली आंदोलन के लिए कोई स्थान क्यों हो सकता है? अपने विचारों को थोपने के लिए सरकार और सत्ता से लड़ाई मोल लेने वाले, पुलिस थानों और सरकारी स्थानों को लूटने वाले इन तत्वों को जड़ से मिटाया जाना ही चाहिए था।
यह विडंबना ही है कि इतने वर्षों तक इन समूहों को पनपने दिया गया। ना तो इस अतार्किक विचारधारा का उचित प्रतिकार किया गया और ना ही इनके खूनी आंदोलन को समाप्त करने की कोई प्रबल इच्छा दिखाई गई। बल्कि, कुछ राजनीतिक दलों ने तो अपने विपक्षी सरकारों को अस्थिर करने के लिए इन्हें प्रश्रय ही दिया। यहां तक कि हिंसक तरीकों से नक्सली ग्रामीणों को किसी खास राजनीतिक दल को वोट देने के लिए भी मजबूर करते रहे, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही दूषित होती रही।
मोदी सरकार का निर्णायक हस्तक्षेप
2014 में सत्ता में आने के बाद से, मोदी सरकार ने इस सामाजिक कम आपराधिक ज्यादा समस्या के समाधान की एक स्पष्ट और विस्तृत रूपरेखा तैयार कर ली थी। भविष्य में नक्सलियों को कैसे रोका जाए, इस पर एक विस्तारित योजना पर काम शुरू कर दिया गया। जब अमित शाह ने गृह मंत्रालय संभाला, तो इस योजना पर और भी तेजी से काम होने लगा। उनकी रणनीति के तहत कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए:
वित्तीय और हथियार आपूर्ति मार्गों पर लगाम:
सबसे पहले नक्सलियों की मिलने वाली फंडिंग के रास्तों की पहचान की गई और उन्हें रोकने के ठोस उपाय किए गए। इसी तरह हथियारों की तस्करी के मार्गों की भी पहचान कर उन पर भी अंकुश लगा दिया गया। यह नक्सलियों की रीढ़ तोड़ने का एक महत्वपूर्ण कदम था, क्योंकि बिना धन और हथियारों के कोई भी हिंसक आंदोलन ज्यादा समय तक नहीं चल सकता।
कानूनी शिकंजा और खुफिया जानकारी का उपयोग:
नक्सलियों और माओवादियों से जुड़े राजनेताओं और राजनीतिक दलों को न्याय के कटघरे में लाने की कोशिश की गई। यह इस बात का संकेत था कि सरकार उनके समर्थकों को भी बख्शने वाली नहीं है। इसके अतिरिक्त, इसरो की मदद से नक्सली शिविरों की स्थिति की पहचान की गई, जिससे सुरक्षा बलों को सटीक जानकारी मिली और लक्षित अभियान चलाने में मदद मिली।
सुरक्षा बलों का प्रशिक्षण और सशक्तिकरण:
भारतीय सेना और अर्धसैनिक जवानों को विशेष रूप से गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया गया। नक्सली दुर्गम इलाकों में गुरिल्ला युद्ध में माहिर थे, इसलिए उन्हें उसी तकनीक से जवाब देने के लिए सुरक्षा बलों को तैयार करना आवश्यक था। इन सभी कामों में अमित शाह के नेतृत्व वाले गृह मंत्रालय ने एक बड़ी भूमिका निभाई।
विकास और विश्वास बहाली की पहल
केवल रणनीतिक तरीके और बल प्रयोग से नक्सल मुक्त भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए मोदी सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सबसे पहले विकास कार्यक्रम को अपनाया। उनका मानना था कि गरीबी, अशिक्षा और अवसरों की कमी ही अक्सर युवाओं को ऐसे हिंसक आंदोलनों की ओर धकेलती है। इन क्षेत्रों में सड़कों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों और आजीविका के अवसरों का विस्तार किया गया। सबसे महत्वपूर्ण, स्थानीय लोगों के साथ बेहतर नेटवर्क स्थापित किया गया और उन्हें अपना पहला प्रहरी बनाया गया। स्थानीय आबादी का विश्वास जीतना और उन्हें नक्सलियों के खिलाफ खड़ा करना किसी भी अभियान की सफलता के लिए महत्वपूर्ण होता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं इस समस्या के समाधान के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रयास किए। दिल्ली आने से पहले ही उन्होंने बस्तर जाकर माओवादियों को स्पष्ट संदेश दिया था: “लोकतंत्र को स्वीकार करिए। सभी समस्याओं का सबसे अच्छा समाधान यही है। हमें खून नहीं, पसीना बहाना है। हमें इस धरती को हरा-भरा बनाना है, लाल नहीं।” यह संदेश हिंसा को त्याग कर विकास और शांति के मार्ग पर चलने का आह्वान था। अब जब गृह मंत्री अमित शाह यह दावा करते हैं कि 2026 तक देश से नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा, तो इसमें प्रधानमंत्री मोदी की दृढ़ इच्छाशक्ति और सरकार की प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
नक्सलियों का माफिया राज और शहरी नक्सलवाद
लगभग 6 दशकों में नक्सली देश के जंगल, पहाड़ और खनिज क्षेत्रों में एक संगठित माफिया के रूप में फैल गए थे। वे अंतर-राज्यीय सीमाओं पर खुलेआम अपनी गैरकानूनी गतिविधियों का संचालन करने लगे थे। खुफिया अड्डे बनाकर भारी मात्रा में असलहे जमा कर सीधे सरकार को चुनौती देने लगे थे, और फिर हथियारों के बल पर अपने-अपने क्षेत्र में साम्यवादी शासन भी चलाने लगे थे।
धीरे-धीरे नक्सलियों ने देश की राजनीति को प्रभावित करने के लिए एक बौद्धिक गैंग भी तैयार कर लिया। यह गैंग उनके हर खून-खराबे को ‘वर्ग संघर्ष’ का जामा पहनाने की कोशिश में लगा रहता था। यहां तक कि हत्या और लूटपाट जैसी आपराधिक गतिविधियों को भी समाज के प्रति शासकीय शोषण के खिलाफ प्रतिक्रिया बताने की कोशिश करता रहता था। ये कथित बुद्धिजीवी अब भी शहरी नक्सली के रूप में काम करते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि नक्सलियों के इन समर्थकों के साथ कई राजनीतिक दलों के तार जुड़े हैं।
गृह मंत्री अमित शाह खुलेआम कहते हैं कि कांग्रेस इन शहरी नक्सलियों को संरक्षण देती रही है, जबकि वे सशस्त्र क्रांति की विचारधारा का प्रसार करते हैं, उनकी गतिविधियों के लिए धन जुटाते हैं और जंगलों में लड़ने वालों के लिए हथियार और गोला-बारूद उपलब्ध कराने के एजेंट के रूप में भी काम करते हैं। यह एक गंभीर आरोप है जो इस समस्या के राजनीतिक आयाम को उजागर करता है।
वाम विचारधारा का पतन और बीजेपी का उभार
बीजेपी के उभार के साथ ही वाम विचारधारा का पतन भी देखा गया है। 2014 के आम चुनाव में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने तो उस साल वामपंथी सांसदों की संख्या 24 से घटकर 10 हो गई, और फिर 2019 के आम चुनाव में लोकसभा में वामपंथियों की संख्या केवल 4 रह गई। यह माना जाने लगा कि सीपीआई, सीपीआई-मार्क्सवादी और सीपीआई-मार्क्सवादी-लेनिनवादी की राजनीति को देश ने एक तरह से खारिज करना शुरू कर दिया है।
एक समय वह भी था जब 2004 के आम चुनाव में वामपंथियों ने लोकसभा की 61 सीटें जीती थीं, जो उनकी राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत उपस्थिति को दर्शाता था।
अब केरल के अलावा वाम मोर्चा कहीं भी खड़ा होने की स्थिति में नहीं है। बीजेपी नेतृत्व ने वाम मोर्चे के अहंकार, आत्मसंतुष्टि, भ्रष्टाचार और उनकी राजनीतिक हिंसा को मुद्दा बनाया और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में एक तरह से अप्रासंगिक बना दिया। 2024 के आम चुनाव में पूरे भारत में, सीपीआई (एम) को 1.76 प्रतिशत, सीपीआई को 0.49 प्रतिशत और सीपीआई (एमएल) एल को केवल 0.27 प्रतिशत वोट ही मिले, जो उनके घटते जनाधार का स्पष्ट प्रमाण है।
आंकड़ों में सफलता और भविष्य की राह
मोदी सरकार ने माओवादी उग्रवाद से निपटने के लिए एक व्यापक योजना बनाई। माओवादी विद्रोह का मुकाबला करने के लिए स्थानीय लोगों को सशक्त बनाया गया, जैसा कि पहले बताया गया। मोदी सरकार ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि नक्सलवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस रखेंगे। यह प्रण किया गया कि 31 मार्च, 2026 तक वामपंथी उग्रवाद को पूरी तरह से खत्म कर देंगे। फिर गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में सुरक्षा अभियान, विकास और पुनर्वास की एक एकीकृत योजना लागू की गई।
ऑपरेशन कगार जैसे अभियानों के तहत सैकड़ों नक्सलियों का खात्मा किया गया और हजारों को आत्मसमर्पण के लिए तैयार किया गया। परिणाम भी सामने आया। 2014 में जहां 126 जिले नक्सलवाद से प्रभावित थे, वहीं 2025 में केवल 6 सबसे अधिक प्रभावित जिले ही बच गए हैं। यह एक अभूतपूर्व सफलता है जो सरकार की नीति की प्रभावशीलता को दर्शाती है।
गृह मंत्री अमित शाह ने बल, सुशासन और समावेशी आउटरीच का एक त्रिस्तरीय फॉर्मूला अपनाकर नक्सलवाद को खत्म करने का समयबद्ध कार्यक्रम तैयार कर लिया है। जो हथियार डालने के लिए तैयार नहीं हो रहे, उन्हें खत्म करने का अभियान दिन-रात चलाया जा रहा है। केवल इसी साल 200 से अधिक हथियारबंद नक्सलियों का सफाया किया जा चुका है। इसके अलावा 600 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण भी किया है। आंकड़े बताते हैं कि 30 मई 2025 तक 2824 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। नक्सलवाद के खिलाफ अभियान को सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब 14 मई, 2025 को सुरक्षा बलों ने नक्सलवाद के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन चलाया।
छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा पर स्थित कर्रेगुट्टालु हिल (केजीएच) पर किए गए इस अभियान में 31 नक्सली मारे गए, जो इस समस्या को जड़ से खत्म करने की सरकार की दृढ़ता का प्रमाण है।
आज, मोदी सरकार के इस दौर में नक्सली खतरे पर नियंत्रण को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। जो आदिवासी कभी नक्सलियों के समर्थन में होने के लिए मजबूर किए गए थे, वे ही अब नक्सल के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए जिस गति से काम हो रहा है, उससे नक्सल समस्या को एक तय समय सीमा में हल करने के प्रति विश्वास पैदा होने लगा है। यह आवाज अब जोर से उठ रही है कि माओवाद और नक्सलवाद को छोड़कर मुख्यधारा में वापस आने का समय आ गया है। यह सिर्फ एक सैन्य जीत नहीं, बल्कि विचारों और विकास की जीत है।


