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विशाखा मुलमुले की कविताएं

Byadmin

Dec 12, 2021
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आत्मकथ्य

मैं विशाखा मुलमुले कविताएँ व लेख लिखती हूँ । अनेक पत्र पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित हुईं हैं ।

मराठी , पंजाबी , नेपाली व अंग्रेजी भाषा में मेरी कुछ कविताओं का अनुवाद हुआ है ।
काव्य संग्रह – पानी का पुल ( बोधि प्रकाशन की दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत )2021 में प्रकाशित हुई है ।

कविताएं

1 ) सीख

उसका लिखा जिया जाए
या खुद लिखा जाए
अपने कर्म समझे जाए
या हाथ दिखाया जाए
घूमते ग्रह , तारों ,नक्षत्रों को मनाया जाए
या सीधा चला जाए
कैसे जिया जाए ?

क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है
कणों से कोना भर रही है
अंडे सिर माथे ले घूम रही है
बस्तियाँ नई गढ़ रही है
जबकि अगला पल उसे मालूम नही
जिसकी उसे परवाह नही

उससे दुगुने ,तिगुने ,कई गुनो की फ़ौज खड़ी है
संघर्षो की लंबी लड़ी है
देखो वह जीवट बड़ी है
बस बढ़ती चली है
उसने सिर उठा के कभी देखा नही
चाँद ,तारों से पूछा नही
अंधियारे ,उजियारे की फ़िक्र नही
थकान का भी जिक्र नही
कोई रविवार नहीं
बस जिंदा , जूनून और जगना .

 

2 – प्रीत की बेला में कभी ऐसा हो

मैं लिख के चूमूँ
हथेली पर तेरा नाम
जैसे चूमती है ओस घास की नोक
और जज़्ब होती है अपने ही उद्गम में
मैं भी समाहित हो जाऊँ तुझमें जबकि
न मिलते हो हमारे नामों में एक भी अक्षर

मैं ढूंढती हूँ तुम्हें भास्कर में
जबकि तुम हो सुधाकर
अलसुबह छोड़ जाते हो घरौंदा मेरा
आते हो तारों को लिए संग
मैं रात की स्याही से लिखती हूँ
उजास के गीत , पर हर संक्रमण
मकर संक्रांत सा शुभ नहीं
कि धुल जाए अश्रु संग सारे अवसाद

हो सके तो ,
तुम बिताओ कभी मेरे संग एक पूरा दिन
भोर संग साथ चलो और देखो दोपहर
देखो ! सांझ में कैसे घुलती है रोशनी
और बिखरती है कैसी गोधूली छटा , तब
चाँद भी होता है जरा उत्सुक और देखता
बिन तारों के आँचल वाली
हरित धरा की स्वर्णिम देह

 

3 ) सहमति

मैं कहाँ लेकर जाऊँ दुःख की गठरी
किससे कहूँ बाँचे मेरे दुःख
जबकि दुख भी मेरे
भाषा भी मेरी
फिर क्यों मैं ही पढ़ने में असमर्थ

क्यों मैं टटोलूँ किसी और की आँख में साझा दुख
क्यों खोजूँ कांधा सर टिकाने को
क्यों चाहूँ सहानुभूति की हाँ , ना
क्यों चाहूँ बाचे कोई मुख

जब आत्मा मेरी ईश्वर मेरा
वह साक्षी मेरे हर निर्णय का
तब सुनाऊँगी आत्मकथा उसे ही
फिर इच्छा उसकी
सुनते समय वह सजग रहे या बेहोश रहे
सुने या अनसुना करे

4 ) असमंजस

प्रतीक्षा में अब इतने आतुर रहते कर्ण
कि हर आहट दस्तक – सी लगती
भनक नहीं थी प्रेम की
जीवन के वसंत में
तो नहीं थी कोई प्रतीक्षा

बे – मन नहीं अ – मन सा था तब मन
पहाड़ की तरह , नदी की तरह , फूल की तरह
अपने होने में पर्याप्त
अपने होने में सम्पूर्ण

अब जीवन के शरद में
रोम – रोम में पुलक जगाता
कर्ण को लाल
मुख को गुलाबी करता
खुली आँखों से स्वप्न देखता
बंद नेत्रों में भी अपनी छवि गढ़ता
आया है प्रेम

असमंजस में हूँ –
प्रतीक्षारत रहूँ न रहूँ ?
द्वार खोलूँ या बंद रखूँ ?

5 ) कठिन है

बेहोश या मृत व्यक्ति सहसा
हो जाता है भारी
देह से भारी
अपने पूरे वज़न – सा भारी
तब उसे सरकाना मुश्किल
टस से मस करना मुश्किल
अपनी ओर खींचना मुश्किल

देखना , ठीक इसी तरह
हर वह मस्तिष्क
जो विमर्शों से पलायनवादी
रहता अपने ही विचारों की बेहोशी में
कभी बुर्जुआ विचारों का सरपरस्त
उसे भी डिगाना मुश्किल
सिक्के का दूसरा पहलू दिखाना कठिन
कठिन !
लगभग नामुमकिन !

(सभी कविताएं राजीव कुमार झा के सौजन्य से)

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